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________________ दार्शनिक व्याख्याता कुन्दकुन्दाचार्य विचार और विवेचना -डॉ. प्रादित्य प्रचण्डिया 'दीति' साहित्य का पूर्णतया मूल्यांकन, उसकी व्याख्या की सम्पूर्णता का दावा, उसमें निहित विचार-पद्धतियों का सुलझा हुआ सर्वेक्षण, साहित्य का मन्तव्य आदि तब तक सम्भव नहीं जब तक कि तात्कालिक समाज का गहन अध्ययन न किया जाए, बाह्य प्रभावों से प्रभावित कवि-मानस पटल की लिपि को न पढ़ा जाए। श्रमण संस्कृति के समुन्नयन में दार्शनिक व्याख्याता कुन्दकुन्दाचार्य का अवदान अविस्मरणीय है और महनीय भी । दीर्घतपस्वी. ऋद्धिधारक और अतिशय ज्ञान-सम्पन्न श्रमणाचार्य कुन्दकुन्द का नामस्मरण विभु वर्द्धमान और इन्द्रभूति गौतमगणधर के उपरान्त ही आज भी किया जाता है । महामनीषी महर्षि कुन्दकुन्दाचार्य द्रव्यानुयोग, अध्यात्म और तत्त्वज्ञान के पुरस्कर्ता हैं । एक ओर उन्होंने 'समयप्राभूत' के द्वारा जैन अध्यात्म का प्रस्थापन किया तो दूसरी ओर 'प्रवचनसार' आदि के द्वारा जैन तत्त्वज्ञान को मूर्तरूप दिया। उनका साहित्य-संसार उनके सहजानंद की अद्भुत अभिव्यंजना है। उसमे प्रात्मानुभूति का अमृतार्णव हिलोरें लेता है। कुन्दकुन्दाचार्य ने प्राकृत शौरसेनी की पृष्ठभूमि में अपने ग्रंथों की रचना प्रधानरूप से श्रमणों को लक्ष्य में रखकर उन्हीं के उद्देश्य से की है । उनके द्वारा रचित पाहुड श्रमणाचार-विषयक शिक्षा से प्रोत-प्रोत हैं। कुन्दकुन्द के ग्रंथों की शैली सरल और स्पष्ट है उसमें दुरूह जैसी बात नहीं है। उन्होंने जो कुछ कहा है बहुत सीधे-सादे शब्दों में कहा है । जैन अध्यात्म का मुकुटमणि 'समयसार' इसका प्रत्यक्ष निरूपमेय निदर्शन है । यह प्राचार्यश्री की अगाध विद्वत्ता और सुगम प्रतिपादन शैली का स्पष्ट परिचायक
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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