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________________ जैनविद्या 149 मरद व जिवदु व जीवो प्रयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा । पयवस्स गथि बंधो हिंसामेत्तेण समिदीसु ॥ 3.17 ॥ -जीव मरे या न मरे फिर भी प्रमादपूर्वक आचरण करनेवाले को निश्चय ही हिंसा का पाप लगता है परन्तु जो साधक अप्रमादी है, उससे यत्नपूर्वक प्रवृत्ति करने पर भी अगर जीव का वध हो जाय तो उसे उस हिंसा का पाप नहीं लगता। प्रयदाचारो समणो छस्सुवि कायेसु बंधगोत्ति मदो। चरदि जदं जदि णिच्चं कमलं णिव जले णिरुवलेवो ॥ 3.18 ॥ -जो श्रमण प्रयत्नाचारपूर्वक असावधानी के साथ प्रवृत्ति करता है उसके द्वारा एक भी जीव के न मरने पर भी उसे छहों जीव-वर्गों की हिंसा का पाप लगता है। यदि वह सावधानी (यत्न) पूर्वक प्रवृत्ति करता है तो उसके द्वारा जीव हिंसा हो जाने पर भी वह जल में कमल की भांति निर्लेप रहता है। परिग्रहत्याग प्राचार्य कुन्दकुन्द ने श्रमण के लिए लेशमात्र भी परिग्रह रखने का निषेध किया है । अपनी काय-चेष्टा द्वारा जीवहिंसा होने पर बन्ध हो न हो, आवश्यक नहीं परन्तु परिग्रह से निश्चय ही बन्ध होता है। इसीलिए श्रमण सर्वत्यागी होता है । जब तक निरपेक्ष भाव से सर्वपरिग्रह का त्याग नहीं किया जाता उसकी चित्त-शुद्धि नहीं हो सकती और जब तक चित्त अशुद्ध है तब तक कर्मों का क्षय कैसे ? परिग्रही के आसक्ति और असंयम होता है। पर-पदार्थ में आसक्ति आत्म-साधना में बाधक है (3.19.21) । श्रमण को केवल देह का ही परिग्रह है लेकिन देह में भी उन्हें ममता नहीं है। अपनी शक्ति .. के अनुसार श्रमण तप में ही देह का प्रयोग करते हैं । सेवा-भक्ति - आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार में श्रमण और श्रावक के लिए सेवा-भक्ति की भी चर्चा की है । उनके अनुसार सेवा-भक्ति शुभभाव का कारण है परन्तु बन्ध के अधीन है । अर्हन्त आदि की भक्ति और शास्त्रज्ञ आचार्य आदि के प्रति वात्सल्य भाव शुभ हैं । सन्तपुरुषों को वन्दन-नमस्कार, उनका विनय, आदर, अनुसरण, दर्शन, ज्ञान का उपदेश, जिनेन्द्र अर्चना, अन्य जीवों को किसी प्रकार की बाधा पहुँचाये बिना चतुर्विध श्रमण संघ की निष्काम सेवा करना श्रमण और श्रावक के लिए शुभभावयुक्त कल्याणकर है । अपने आत्म-स्वरूप को सुरक्षित रखते हुए कर्म-बन्धनों को काटते हुए, सावधानीपूर्वक सेवाभक्ति परम सौख्य का कारण है। वैसे शुभभाव का राग भी पात्रविशेष में विपरीत फल देता है । समान बीज भी भूमि की भिन्नता से भिन्न रूप में परिणत होता है । जिन्हें परमार्थ का ज्ञान नहीं है और जिनमें विषय-कषाय की अधिकता है ऐसे लोगों को दान, सेवा के फल-स्वरूप हलके मनुष्य भव की प्राप्ति होती है (3.45.50) ।
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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