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________________ 134 जैनविद्या चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णिहिट्ठो। मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो॥7॥ -निस्संदेह चारित्र धर्म (होता है) । जो समता (है), वह निश्चय ही धर्म कहा गया (है)। (समझो) मोह (आध्यात्मिक विस्मरण) और क्षोभ (हर्ष-शोकादि द्वन्द्वात्मक प्रवृत्ति) से रहित आत्मा का भाव ही समता (कहा गया है)। (अत: समता ही चारित्र होता है)। जीवो परिणमदि जदा सुहेण असुहेण वा सुहो असुहो । सुद्धरण तदा सुद्धो हवदि हि परिणामसन्मावो ॥9॥ -जीव (जिसका) स्वभाव परिणमन (रूपान्तरण) (है), (वह) जब शुभ अशुभ तथा शुद्ध रूप में परिणमन करता है, तब (वह) निश्चय ही शुभ, अशुभ (और) शुद्ध हो जाता है। धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपयोगजुदो । पावदि णिव्वाणसुहं सुहोवजुत्तो व सग्गसुहं ॥11॥ -यदि आत्मा (व्यक्ति) शुद्ध (समतारूप) क्रियाओं से युक्त (होता है), (तो) (वह) धर्म (समता) के रूप में रूपान्तरित प्रात्मा (व्यक्ति) (कहा गया है)। (अतः) (वह) परम शान्तिरूपी सुख को प्राप्त करता है । तथा (यदि) (वह) शुभ क्रियाओं से युक्त (होता है), (तो) स्वर्गसुख को (प्राप्त करता है) । अइसयमादसमुत्थं विसयातीदं प्रणोवममणंतं । अव्वुच्छिण्णं च सुहं सुद्धवप्रोगप्पसिद्धाणं ॥ 13 ॥ -शुद्ध-उपयोग (आत्मानुभव) से विभूषित (व्यक्तियों) का सुख श्रेष्ठ, आत्मोत्पन्न, विषयातीत, अनुपम, अनन्त तथा अविच्छिन्न (होता है)। सुविदिदपयत्थसुत्तो संजमतवसंजदो विगदरागो । समणो समसुहदुक्खो भरिणदो सुद्धोवनोगो त्ति ॥ 14 ॥ -श्रमण (जिसके द्वारा) तत्व (अध्यात्म) (तथा) (उसका प्रतिपादन करनेवाले) सूत्र-(ग्रन्थ) भली प्रकार से जान लिये गये (हैं), (जो) संयम और तप से संयुक्त (है), (जिसके द्वारा) राग (आसक्ति) समाप्त कर दिया गया/दी गई (है), (जिसके द्वारा) सुख और दुःख समान (समझ लिये गए हैं), (वह) शुद्धोपयोगवाला (समता को प्राप्त) कहा गया (है)।
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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