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________________ जैन विद्या 115 यथायोग्य चतुर्थ गुणस्थानवर्ती, पंचम गुणस्थानवर्ती और षष्ठ गुणस्थानवी जीवों के समान धर्माचरण कर सकते हैं और इस प्रकार धर्माचरण करते हुए अभव्य जीव भी भव्य जीवों के समान अपने में क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य लब्धियों का विकास कर लेते हैं, जिनके प्रभाव से वे नवम् ग्रैवेयिक तक भी उत्पन्न हो जाते हैं परन्तु वे भव्य जीवों के समान आत्मविशुद्धि कर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र प्राप्त नहीं कर सकते क्योंकि जैनशासन में बतलाया गया है कि उस जीव की आत्मविशुद्धि सम्यग्दर्शनरूप होती है जिसने दर्शनमोहनीयकर्म की तीन और चार अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोमरूप इन सात प्रकृतियों का उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम किया हो । इसी प्रकार देशव्रतरूप आत्मविशुद्धि उसी जीव की होती है जिसने उक्त दर्शनमोहनीयकर्म की तीन और अनन्तानुबन्धी कषाय की चार इन सात प्रकृतियों के उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम के साथ अप्रत्याख्यानावरण कषाय की चार प्रकृतियों का भी क्षयोपशम किया हो तथा आत्मा की विशद्धि सर्वव्रतरूप उसी जीव की होती है जिसने उक्त दर्शनमोहनीयकर्म की तीन और अनन्तानुबन्धी कषाय की चार इन सात प्रकृतियों के उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम और अप्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशम के साथ प्रत्याख्यानावरण कषाय का भी क्षयोपशम किया हो। - इसका भाव यह है कि मोहनीयकर्म की उक्त प्रकृतियों का यथासम्भव उपशम, क्षय या क्षयोपशम मिथ्यात्वगुणस्थानवर्ती उसी जीव में होता है जो भव्य हो तथा उस जीव में उन प्रकृतियों का यह उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम तभी होता है जब वह सातिशय मिथ्यादृष्टि हो जाता है । वह सातिशय मिथ्यादृष्टि तभी कहा जाता है जब वह करणलब्धि प्राप्त करता है अर्थात् क्रमशः अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण परिणामों को प्राप्त होकर मोहनीयकर्म की उक्त प्रकृतियों का यथायोग्य उपशम, क्षय और क्षयोपशम करने की क्षमता प्राप्त कर लेता है । उसे इस करणलब्धि की प्राप्ति तभी होती है जब वह समयसार में प्रतिपादित भेद-विज्ञान को प्राप्त कर लेता है । वह उक्त भेदविज्ञान को तब प्राप्त होता है जब वह क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य इन चार लब्धियों को प्राप्त कर लेता है। वह इन चार लब्धियों को तब प्राप्त करता है जब वह नैतिक आचरण के रूप में अथवा नैतिक आचरण के साथ देशव्रत रूप में अथवा नैतिक आचरण के साथ सर्वव्रतरूप में मन, वचन और काय के समन्वयपूर्वक प्रागम में वरिणत उक्त प्रकार के व्यवहारधर्म को यथायोग्यरूप में अंगीकार करता है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि अभव्य जीव भी उक्त प्रकार के व्यवहारधर्म को अंगीकार करके क्षयोपशम. विशद्धि. देशना और प्रायोग्य इन लब्धियों को प्राप्त कर लेता है परन्त वह अपनी अभव्यता के कारण उक्त भेदविज्ञान को प्राप्त नहीं होता। समयसार गाथा 275 का यही अभिप्राय है। ___उन भव्य और अभव्य जीवों को उक्त चार लब्धियों की प्राप्ति नहीं होती है जो उक्त प्रकार के व्यवहारधर्मों को अंगीकार तो करते हैं परन्तु मन, वचन और काय के समन्वयपूर्वक नहीं।
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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