SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 126
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वद्रव्य विग्गहं कहियं अप्पाणं हवइ कम्मर हियं प्रणोवमं सुद्धं जिणेहिं णिच्चं । सद्दव्वं ॥ 18 ॥ - ( वह ) श्रात्मा ( जो ) दुष्ट आठ कर्मों से रहित ( है ), अनुपम, नित्य ( श्रौर) शुद्ध ( है ) ( तथा जिसका ) ज्ञान ही शरीर है ( वह ) स्वद्रव्य है (ऐसा ) जिन द्वारा कथित ( है ) | जे भायंति सदव्वं परदव्वपरंमुहा हु सुचरिता । ते जिरणवराण मग्गे अणुलग्गा लहन्ति रिगव्वारणं ॥ 19 ॥ - परद्रव्य से विमुख जो (व्यक्ति) सम्यक् प्रकार से आचरण करके स्वद्रव्य का ध्यान करते हैं, उन्होंने जितेन्द्रिय ( जिनेन्द्र ) के पथ का अनुसरण किया है ( अत: वे ) निश्चय ही परमशांति प्राप्त करते हैं । मोक्षपाहुड
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy