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________________ परद्रव्य प्रादसहावा प्रणं सच्चित्ताचित्तमिस्सियं हवइ । तं परदव्वं भरिणयं श्रवितत्थं सव्वदरसीहि ॥ 17 ॥ - आत्मस्वभाव से अन्य ( जो ) सचित्त चित्त (तथा) मिश्रित ( द्रव्य ) होता है, सर्वज्ञ द्वारा वह सत्यतः परद्रव्य कहा गया है । परदव्वरओ बज्झदि विरम्रो मुच्चेइ विविहम्मेहि । एसो जिणउवदेसो समासदो बंधमुक् ॥ 13 ॥ - परद्रव्य में अनुरक्त (व्यक्ति) विभिन्न प्रकार के कर्मों के द्वारा बांधा जाता (है), ( परद्रव्य से ) अनासक्त (व्यक्ति) ( कर्मों से ) छुटकारा पाता है । बंध और मोक्ष के विषय में (यह ) संक्षेप जिन उपदेश है । परदव्वादो दुग्गइ सहव्वादो हु सग्गई होई । इय गाऊरण सदव्वे कुरणह रई विरय इयरम्मि ॥16 ॥ - निश्चय ही परद्रव्य के कारण दुर्गति (और) स्वद्रव्य के कारण सुगति होती है । इस प्रकार जानकर स्वद्रव्य में अनुराग करो (और) शेष से विरति ( करो) । मोक्षप
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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