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________________ प्रकाशकीय जन-जन की श्रद्धा का केन्द्र, लोकांक्षाओं की पूर्ति के लिए विश्रुत, अनेक चामत्कारिक घटनामों से सम्बद्ध, वर्तमान कालीन चतुर्विंशति तीर्थकर परम्परा में अन्तिम भगवान् महावीर के नाम से विख्यात राजस्थान के सवाई माधोपुर जिले के हिण्डौन उपखण्ड में स्थित दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी सम्पूर्ण भारत में शायद एकमात्र ऐसा तीर्थ है जहां से कई लोकहितकारी प्रवृत्तियां संचालित होती हैं, जो सच्चे प्रयों में तीर्थ है । भगवान् महावीर की वाणी के प्रचार-प्रसार द्वारा जीवों के प्रजानांधकार को सम्यक्ज्ञान के आलोक से नष्ट कर उन्हें उन्मार्ग से हटा सन्मार्ग की ओर उन्मुख करना, उन्हें उस मार्ग पर चलने की प्रेरणा देना उन प्रवृत्तियों में से एक है । ___ इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु क्षेत्र की प्रबन्ध समिति ने 'जनविद्या संस्थान' नामक . संस्था की कुछ वर्षों पूर्व स्थापना की थी। विपुल जैन साहित्य की विभिन्न धारामों/ विधाओं यथा-काव्य, इतिहास, पुराण, चरित, धर्म, दर्शन, ज्योतिष, गणित, विज्ञान प्रादि की विशेषताओं से जिज्ञासु विद्वान् परिचित हो सकें एतदर्थ संस्थान ने एक पाण्मासिक शोध-पत्रिका 'जनविद्या' का प्रकाशन प्रारम्भ किया था जिसके नौ अंक पाठकों तक पहुंच चुके हैं । दसवां-ग्यारहवां अंक 'कुन्दकुन्द विशेषांक' के रूप में प्रकाशित करते हुए हमें हार्दिक प्रसन्नता है। - 'आद्य कुन्दकुन्द' जिनका वास्तविक नाम 'पद्यनंदि प्रथम' था, मूलसंघीय दिगः म्बर जैन प्राचार्य परम्परा में शीर्ष बिन्दु पर अवस्थित हैं। - -- जब भारत में वैदिक याग-यज्ञों का बोलबाला था, हिंसा अपनी चरम सीमा पार कर चुकी थी, नारी अपना वर्चस्व खो चुकी थी, अन्याय और अत्याचार की ज्वाला से सारा विश्व संतप्त और संत्रस्त हो रहा था, ऐसे समय में भगवान् महावीर ने प्राद्य तीर्थकर भगवान् ऋषभदेव के अहिंसा और समता पर आधृत धर्म को पुनर्जीवन प्रदान किया, स्थान-स्थान पर घूमकर अपने दिव्य उपदेशों से सुख और शान्ति का मार्ग प्रशस्त किया । उनके प्रमुख शिष्य इन्द्रभूति गौतम गणधर ने उनकी उस वाणी को द्वादश अंगों में विभक्त कर शृंखलाबद्ध किया और मौखिक परम्परा से उस द्वादशांग श्रुत के अध्यात्म एवं चारित्र से सम्बन्धित एक अंश को लिपिबद्ध कर स्थायित्व प्रदान करनेवालों में वे सर्वप्रथम आचार्य थे । एतत्सम्बन्धी जितना भी साहित्य प्राज दिगम्बर परम्परा में प्राप्त है उसका मूलाधार उन द्वारा रचित, संकलित ज्ञान भण्डार ही है । यदि वे ऐसा नहीं करते तो भगवान् महावीर के स्व-पर हितकारी अध्यात्म एवं चारित्र सम्बन्धी उपदेश अाज हम तक नहीं पहुंचते, वे विस्मृति के गर्त में समय के प्रवाह के साथ लुप्त हो जाते । इस दृष्टि से प्राचार्य कुन्दकुन्द का महत्त्व और समाज पर उनका उपकार स्पष्ट है । वे हमारे लिए
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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