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________________ 94 जनविद्या बावजूद ये परम्परायें वैचारिक धरातल पर एकांगी हो जाती हैं और उनकी समन्वयात्मक दृष्टि टॉय-टॉय फिस हो जाती है परन्तु कुन्दकुन्द की गंभीर दृष्टि ने इस एकांगिता को पूरी तरह से ध्वस्त करने का जी-तोड़ प्रयत्न किया उन्होंने ज्ञायक शुद्ध आत्मा को निश्चय आत्मा अथवा स्वसमय और सांसारिक आत्मा को परसमय कहा। एक निश्चय है दूसरा व्यवहार है। निश्चय की साधना के लिए व्यवहार की साधना अपरिहार्य है। मात्र निश्चय की बात करनेवाले प्रवक्ता वस्तुतः कुन्दकुन्द के हार्द से कोसों दूर हो जाते हैं । उनका समचा ग्रंथ-समदाय निश्चय और व्यवहार की समन्वित साधना के लिए ही कृतसंकल्प दिखाई देता है तब मात्र निश्चय नय की बात करने से उनके अभिधेय को भूल जाने की बड़ी भारी गलती करना ही माना जा सकता है। समयसार की पीठिका में उन्होंने बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा है कि जिस प्रकार अनाड़ी/अपढ़/अनार्य व्यक्ति को उसकी भाषा में ही समझाया जा सकता है उसी प्रकार परमार्थ का उपदेश भी बिना व्यवहार के संभव नहीं होता और ऐसे उपदेष्टा के लिए स्वयं भी तद्नुकूल मुनिवत् आचरण का परिपालक होना आवश्यक है। जह ण वि सक्कमणज्जो अरणज्जभासं विणा दु गाहेदु । तह ववहारेण विणा परमत्थुवदेसरणमसक्कं ॥ 8 ॥ व्यवहार सांसारिक जगत् से सम्बद्ध है, उसमें सारे अध्यवसान (मोहादि भाव) रहा करते हैं । यद्यपि रागादिभावपूर्वक किये गये कार्य बंध के कारण हैं परन्तु रत्नत्रय के साथ किये गये सभी कार्य सम्यक् व्यवहार की सीमा में आ जाते हैं और वे परमार्थ के साधन बन जाते हैं । दान, पूजा, प्रतिष्ठादि सारी क्रियायें व्यावहारिक हैं। प्राचारांग आदि का ज्ञान, नव-पदार्थों का मानना, षट्काय जीवों की रक्षा करना आदि सभी प्रकार की क्रियायें चारित्र व्यवहार नय के अन्तर्गत आती हैं (स. सा. 295) । इन्हें मात्र व्यावहारिक क्रियायें कहकर छोड़ा नहीं जा सकता । ये क्रियाएँ जब सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र की पृष्ठभूमि में की जाती हैं तब वे परमार्थ की साधक बन जाती हैं इसलिए व्यवहार नय कुन्दकुन्द की दृष्टि में वर्जनीय नहीं माना गया बल्कि उसे मोक्ष-साधक कहा गया है अतः उन्होंने इन दोनों नयों को जाननेवाले पक्षपातविरहित व्यक्ति को ही समयसारज्ञ कहा है (स. सा. 150-151)। कुन्दकुन्द के समस्त ग्रंथों का पालोड़न-विलोड़न करने पर यह तथ्य किसी से छिपा नहीं रहता कि उन्होंने निश्चय और व्यवहार इन दोनों नयों की सयुक्तिक विवेचना कर उनमें तार्किक समन्वय का अभूतपूर्व प्रयत्न किया । निश्चय नय की दृष्टि से आत्मा के विशुद्ध स्वरूप का सांगोपांग विवेचन तो मिलता ही है पर संसार में भ्रमण करनेवाले जीवों के लिए उन्होंने जो व्यवहार सम्यक्त्व और व्यवहार चारित्र का जो सुन्दर वर्णन किया है उसे पढ़कर कौन निश्चयवादी प्रवक्ता व्यवहार का अपलाप कर सकेगा। भावपाहुड़ में वर्णित चैत्य, प्रवचन और भक्ति की आराधना, (91-94), मूलगुण और उत्तरगुणों का परिपालन (113), सप्ततत्त्वचिंतन (115-16), चारित्रपाहुड में वणित
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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