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________________ आचार्य कुन्दकुन्द की दृष्टि में 'समय' - -डॉ. श्रीमती पुष्पलता जैन प्राचार्य कुन्दकुन्द भारतीय संस्कृति के अनूठे पुजारी और जैन संस्कृति के अनुपम धरोहर थे । उन्होंने भारतीय दर्शन के आलोक में जैनदर्शन को जिस सक्षमता, बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता के साथ संभाला, पुष्पित और पल्लवित किया वह किसी प्रकांड दार्शनिक और मत संस्थापक के व्यक्तित्व से कम प्रतिभाशाली व्यक्तित्व नहीं कहा जा सकता। तीर्थंकर महावीर की दुंदुभि के स्वर तो गुंजित होते ही रहे और उससे मोहाच्छन संसारी जीवों को नया प्रकाश और जीवन-दान मिला पर कालानुसार उसे व्यवस्थित और व्याख्यायित करने का श्रेय कुन्दकुन्द को ही जाता है इसलिए उनके नाम से एक विशिष्ट आम्नाय भी प्रारम्भ हुई है जिसका सम्बन्ध जैनधर्म की मूल-परम्परा और विशुद्ध अध्यात्म से रहा है। सारे दर्शनों का केन्द्र-बिन्दु आत्मा माना गया है। कोई भी दार्शनिक चाहे वह पौर्वात्य रहा हो या पाश्चात्य, आत्मा पर विचार किये बिना आगे नहीं बढ़ सका। वेदों में भी “एक हि सद् विप्राः बहुधा वदन्ति" जैसे अनेक उल्लेख आत्मा को विचारों के कंगूरों पर बैठा पाते हैं । जैनों का 'पूर्व' साहित्य और बौद्धों का 'त्रिपिटक' आत्मा की भूमिका पर ही खड़े हैं । बौद्ध साहित्य की 62 मिथ्यादृष्टियाँ और जैन साहित्य के 363 प्रकार के मिथ्या विचार प्रात्मा की सीमा से बाहर नहीं हैं । अरस्तु और प्लेटो तथा उनके अनुयायी और विरोधी दार्शनिकों ने भी आत्मा के स्वरूप पर खूब मंथन किया है। देकार्त के प्रात्म-अस्तित्ववाद से भी हम अपरिचित नहीं हैं ।
SR No.524759
Book TitleJain Vidya 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1990
Total Pages180
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size15 MB
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