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________________ जनविद्या वीर ने अपनी कथा को पुनरुक्ति से दूर रखकर संक्षिप्त शैली का अनुकरण किया पर उसे एक विशिष्ट सभा अर्थात् विद्वज्जनों द्वारा ही रंजनीय माना - पsिहाइ न वित्यरु श्रज्ज जणे पडिभणइ वीरु संकियउ मणे । भो भव्वबंधु किय तुच्छकहा रंजेसह केम विसिट्ठसहा || 1.5.6-7 इसी परम्परा को संदेशरासक ( प्रथम प्रकाम, 20 - 23 ) तथा रासों में भी देखा जा सकता है । रासो की पंक्तियां उद्धरणीय हैं कुमति मति वरसत निहि विधि बिना न अब्बान । तिहि रासो तु पंक्ति गुन सरसो व्रन्न रसान । 1.89 81 जंबूसामिचरिउ में संस्कृत प्राकृत कथाकाव्यों की परम्परा का अनुसरण कर आत्मलघुता का प्रदर्शन बड़े सुन्दर शब्दों में किया है जिस पर महाकवि कालिदास का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है । इसी को उन्होंने कड़वक के प्रारम्भिक पदों में श्लेषात्मक ढंग से अपनी प्रतिभामिश्रित विनम्रता को अभिव्यक्त किया है ( 1.3) 1 रासो के कवि ने व्यास, शुकदेव, श्रीहर्ष, कालिदास, दण्डमाली, जयदेव की अभ्यर्थना की और स्वयं को पूर्व कवियों का उच्छिष्ट कथन करनेवाला मानकर अपनी लघुता का प्रदर्शन इन शब्दों में किया है- गुरं सब्ब कव्वी लहू चन्द कव्वी । जिने दसियं देवि सा अंग हब्वी । कवी कित्ति कित्ति उकत्ती सुदिक्खी । तिनें की उचिष्टो कुवीचंद भक्खी । ( 1.10 ) सज्जन - दुर्जन चर्चा में जंबूसा मिचरिउ में वीर कवि ने कहा कि सज्जन की गुणदोष परीक्षा में प्रवृत्ति ही नहीं होती पर दुर्जन गुणों का निराकरण और दोषों का प्रकाशन किया ही करता है ( 1.2 ) । रासो में सज्जन - दुर्जन चर्चा दो दोहों ( 1-51, 52 ) में ही पूरी कर दी है । प्राचीन काव्यों में कवि का नाम प्रायः सगं के या काव्य के अंत में रहा करता था । अपभ्रंश काव्यों में इस परम्परा के स्थान पर कवियों द्वारा सर्ग के अन्तिम छन्द में अपनी नाममुद्रा अथवा किसी भी रूप में अपना नाम जोड़ दिया जाने लगा । जंबूसामिचरिउ में वीर कवि ने भी संधि के अन्त में अपना नाम किसी न किसी रूप में संयोजित कर दिया है जैसेरु (1.18 ), अतुलवीरु ( 2.20 ), वीरपुरिसु ( 3.14), वीरस्सु ( 4.22), वीरुसंकिय (5.14), वीरेहि ( 6.14), सवीरु ( 8.16), वीरनरु ( 9.19), एकल्लवीरु ( 10.26), तीर जिणु (11.15 ) । स्वयंभू ने सर्गान्त में सइंभूज्जन्ति थिय (20.12 ) छाईहल ने जिणु दिवदिट्ठी मणि भाइ ( 3.10), पुष्पदन्त ने भरह पुष्पदन्तुज्जलिय ( 22.21 ), कनकामर वे कण्याभरसवमाणिणि ( 1.24 ) इसी तरह अपने नाम का संकेत किया है । इसी तरह रासो के कवि ने 'समय' के अन्त में अपना नाम अवश्य दे दिया है— सुयनसुफल दिल्लीकथा कही वरदाय ( 3.58) ।
SR No.524755
Book TitleJain Vidya 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages158
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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