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________________ 67 जैन विद्या अहिंसा क्या है ? इसे प्रागम से समझना चाहिए परीक्षापूर्वक । श्रागम वही है जो जीवदया का उपदेश दे और पूर्वापर विरोध कथन से विमुक्त रहे । ऐसा धर्म ही प्रभावक होता है । कवि धर्म की व्याख्या पारमार्थिक और व्यावहारिक रूप से भी करते हुए दिखाई देते हैं । उन्होंने कहा कि धर्म से ही चक्रवर्ती, हरि (वासुदेव) आदि होते हैं और धर्म से ही व्यक्ति महान् गुणोंवाली व भोगों को प्रदान करनेवाली पुरंदर की लीला को धारण करते हैं भुंजियभोय धम्म चक्कवट्टि हरि - हलहर, धम्में लोयवाल - ससि-दिरगयर । धम्में मणुय महागुणसीला, पुरंदरलीला ॥ धम्मु श्रहिंसा लक्खणलक्खिउ, किज्जइ श्रागमेण सुपरिक्खिउ । श्रागम सो जि जित्युं दय किज्जाइ, पुव्वावर विरोहु न कहिज्जइ ॥। 2.11.6–9 धर्म की इस परिभाषा को कवि ने पौराणिक आख्यानों के माध्यम से स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है । इसमें तीनों परिभाषाओं का समावेश हो गया है । यह भी यहां द्रष्टव्य है कि धर्म की यह परिभाषा सार्वभौमिकता लिये हुए है । उसमें किसी धर्म विशेष का नामोल्लेख नहीं है । के साथ दया को अनुस्यूत किया कुरान ( सुरा. 23.8 ) भी इसी मैकर्टगार्ट जैसे पाश्चात्य विद्वानों महात्मा बुद्ध और क्राइस्ट ने भी धर्म की परिभाषा . है । अवतारवाद भी इसी सिद्धान्त से प्रतिफलित हुआ है। परिभाषा को मानता हुआ दिखाई देता है । पेटर्सन और ने भी धर्म के इसी रूप को स्वीकारा है । पेटर्सन ने विश्वास, ज्ञान और प्राचरण पर समान देने के लिए कहा है । उसके अनुसार इनमें से कोई एक भी पक्ष यदि गौण कर दिया जाय तो धर्म की परिभाषा खण्डित हो जाती है और धर्मान्धता तथा धार्मिक उन्माद बढ़ जाता है । वह यह भी कहता है कि परम्परा और प्रगति इन दो विरोधी तत्त्वों के बीच धर्म पनपता रहता है । प्रगतिवादी भी परम्परा से मुख नहीं मोड़ पाते । प्रत्येक धर्म में विकास हुआ है पर किसी भी उत्तरकालीन संप्रदाय का साहस मूल संप्रदाय से हटने का नहीं हुआ । वीर कवि की धर्म की परिभाषा भी मूल ग्रन्थों से हटकर नहीं हुई । यद्यपि उनका समय उथल-पुथल का समय था पर पुष्पदन्त के समान वे व्यावहारिक स्तर पर भी उतरकर धर्म की परिभाषा को युद्ध के साथ नहीं जोड़ सके ( णायकुमारचरिउ 8.13 ) । जीव का स्वरूप जंबूसा मिचरिउ ( 21 ) में जीव के स्वरूप पर मुख्यतः दो प्रसंगों में विचार किया गया । प्रथमतः राजा श्रेणिक के प्रश्न के उत्तर में तथा दूसरा विद्युच्चर और जम्बूस्वामी के संवाद के रूप में। श्रेणिक के प्रश्न के उत्तर में तीर्थंकर महावीर से जो उत्तर दिलाया गया उसमें जीव का यथार्थ स्वरूप प्रस्तुत हो गया है । उसे हम दोनों नयों से समझ सकते हैं - निश्चयनय से और व्यवहारनय से । निश्चयनय से यह जीव निरंजन ( पूर्णत: कर्ममुक्त), शान्त एवं दर्शनज्ञान से युक्त है । यह आत्मा स्व-पर तत्त्व को जाननेवाला है, अनादि अनन्त एवं स्वज्ञान प्रमाण मात्र है । पर पदार्थ को जानते हुए भी वह 'पर' से मिलता नहीं और अन्य द्रव्यों से उसका
SR No.524755
Book TitleJain Vidya 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages158
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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