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________________ महाकवि वीर की दार्शनिक दृष्टि -डॉ. भागचन्द्र जैन, 'भास्कर' महाकवि वीर अपभ्रंश के उन शीर्षस्थ साहित्यकारों में अग्रगण्य हैं जो अपनी एक मात्र कृति के कारण अमरता का महनीय किरीट बांध चुके हैं । जंबूसामिचरिउ (वि.सं. 1076) उनकी अमर कृति है, सन्धिबद्ध महाकाव्य है, रस-अलंकारों से आभूषित रचना है । इस रचना के अध्ययन से यह तथ्य प्रच्छन्न नहीं रह जाता कि उसका लेखक अपभ्रंश के साथ ही संस्कृत पोर प्राकृत में भी समान रूप से सिद्धहस्त रहा है । प्रथम संधि के अन्त में और पंचम संधि के ग्यारहवें कड़वक में प्राप्त संस्कृत श्लोक तथा प्रत्येक संधि की प्राथमिक गाथाएँ, प्रशस्ति भाग तथा प्रथम (1.11) और सप्तम (7.4) संधियों के बीच में समाहित प्राकृत गाथाओं का भाषा-सौन्दर्य महाकवि के त्रिभाषा वंदग्ध्य का पर्याप्त परिचायक है। - महाकवि मात्र भाषा के ही विद्वान् नहीं थे, उन्होंने व्याकरण और दर्शन का भी गंभीर अध्ययन किया था (1.3) । प्रस्तुत आलेख में हम उनकी दार्शनिक विचारधारा को उपस्थित करने का प्रयास करेंगे। यहां यह उल्लेखनीय है कि जंबूसामिचरिउ एक कथाप्रधान अन्य है । अन्य ग्रन्थों के समान इसमें कवि ने दार्शनिक सामग्री को ढूंसकर नहीं भरा है। स्वभावतः जो भी प्रासंगिक रहा उसका संक्षिप्त पर प्रामाणिक विवेचन किया है इसलिए किया-प्रवाह यहां बोझिल नहीं हो पाया। दार्शनिक सूत्र उतने ही प्रस्तुत किये गये जो कथा संचालन में सहयोगी बन सके । यहां हम धर्म और दर्शन को एक साथ लेकर चल रहे हैं।
SR No.524755
Book TitleJain Vidya 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages158
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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