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जंबूसामिचरिउ में छन्द-योजना
–श्रीमती अलका प्रचण्डिया 'दीति'
लय की अणिमा और महिमा ही छंद है। नाद की गतियां जब लयमयी बनती हैं तब छंद जन्म लेता है। अर्थ काव्य का प्राण है तो छंद ऊर्जा है। वस्तुतः छंद लयात्मक, नियमित तथा अर्थपूर्ण वाणी है । छंद काव्य की नैसर्गिक आवश्यकता है। छंदोमयी रचना में सम्प्रेषणीयता और लयान्विति का योग रहता है जिससे उसमें जीवन को आनंदित करने को शाश्वत सम्पदा मुखर हो उठती है। छंदोबद्ध वाणी आत्मा को चमत्कृत कर उसे उल्लास में निमग्न कर देती है ताकि जीवन की समूची विषमता और विषादमयता का सर्वथा विसर्जन हो। संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश वाङ्मय में छंद-शास्त्र लेखन की चार प्रमुख शैलियाँ उपलब्ध हैं- यथा -
(1) सूत्र शैली-पिंगलाचार्य तथा आचार्य हेमचन्द्र द्वारा व्यवहृत । (2) श्लोक शैली–अग्निपुराण और नाट्यशास्त्र में प्रयुक्त । (3) एकनिष्ठ शैली-गंगादास और केदारभट्ट द्वारा गृहीत जिसमें लक्षण उदाहृत
छंद में ही निहित रहता है। (4) मिश्रित शैली-'प्राकृत पैंगलम' में व्यवहृत शैली जिसमें अलग छंदों में भी
और कहीं-कहीं उदाहृत छंदों में भी उल्लेख हुआ है। अपभ्रंश छंदों के स्रोत दो हैं-एक तो विभिन्न छंद-शास्त्रियों द्वारा प्रस्तुत अपभ्रंश छंदों का विश्लेषण और दूसरे अपभ्रंश काव्य में प्रयुक्त छंदों का अनुशीलन । अपभ्रंश प्रबन्धकाव्यधारा, सचमुच छंद की दृष्टि से बहुत अधिक समृद्ध है। यह समृद्धि आकस्मिक नहीं