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________________ 54. जनविद्या तुरिउ तुरिउ धरि जामि पवत्तमि, सेसु विवाहकज्जु निव्वत्तमि । दुल्लहु सुरयविलासव जमि, नववहुवाए समउ सुहु भुजमि । 2.13.5-6 घर लौटने के निश्चय के तुरन्त बाद ही भवदेव को याद आया भाई द्वारा थोपा गया निवृत्ति भार । प्रवृत्ति और निवृत्ति के हिंडोलों के मध्य झूलती हुई भवदेव की मनःस्थिति भी झकझोरे खाने लगी कि वह किस हिंडोले में झूले ? अनिश्चय और मानसिक द्वन्द्व की पीड़ा ने उसे केवल एक चीख दी-किससे कहूं, कैसे फूट फूट कर रोऊं ? इधर पास में व्याघ्र है और दूसरी ओर दुष्ट नदी निलयहो जं न नियत्तउ सच्चउ, भाइ पइज्जह एह जि पच्चहु । कहमि कासु कह करमि महारडि, एत्तह वग्धु पास इह दोत्तडि । 2.13.8-9 बारहमासा, शारीरिक उन्माद के स्थूल चित्र, विरहिणियों के ऊहात्मक कथनों की अपेक्षा विरही की मानसिक स्थिति के सूक्ष्म चित्रण से वीर कवि का वियोग शृंगार न्यून होते हुए भी बड़ा अनुभूतिमय, स्वाभाविक और मर्मस्पर्शी है । 'जम्बूसामिचरिउ' का दूसरा प्रमुख रस 'वीर' है। भारतीय साहित्य में व्यक्तिगत अहंकार की पूर्ति अथवा सुन्दरियों को आलिंगनबद्ध करने की महत्त्वाकांक्षा के वशीभूत होकर ही अधिकांश युद्ध लड़े गये हैं। उनके नायक का लोकहित से सीधा सम्बन्ध न पाकर भावुक हृदय पूर्णतया रससिक्त नहीं हो पाता । ऐतिहासिक और पौराणिक पात्रों में राम के अतिरिक्त जम्बूस्वामी ही एक ऐसे योद्धा हैं जो सार्वजनिक हित और मर्यादा की स्थापना के लिए प्राणपण से भीषण युद्ध में जुटे हैं। विलासवती को बलात् ब्याहने की चेष्टा करनेवाले हंस द्वीप के राजा रत्नशेखर ने उसके पिता राजा मृगांक पर हमला बोल दिया । केरल नगरी के गांव उजाड़े गए । निरीह जनता के हरे-भरे खेत और बाग-बगीचे नष्ट कर दिये गये । इस अनर्थ की गगनगति विद्याधर द्वारा सूचना पाकर वीर कवि का शान्त और विरक्तभावा विचलित हो उठा। भला वह जनहित की उपेक्षा कैसे करता? मृगांक से अपना कोई लेनादेना न होने पर भी भीषण युद्ध में जुट जाने की यह मनोवृत्ति उन व्यक्तियों को बड़ी प्रेरणाप्रद है--आज भी और कल भी जो दूसरों के प्रति होता हुआ प्रत्यक्षदर्शी अन्याय अपने मोटे पेट में सहजतया पचा जाते हैं और इस पर भी लोकसेवक अथवा उत्तम सामाजिक होने का दंभ करते हैं। जम्बूस्वामी ने निर्दोष कन्या के अपहरणकर्ता रत्नशेखर को द्वन्द्व युद्ध में पराजित किया, मृगांक को उसके बन्धन से मुक्त कराया। रत्नशेखर द्वारा अन्याय न करने का वचन पाकर उसे क्षमा भी किया तथा विश्व को एक अनठे प्रादर्श की राह दिखाई।
SR No.524755
Book TitleJain Vidya 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages158
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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