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________________ जनविद्या ___ 37 का पालन करते हुए बारह वर्षों की लम्बी अवधि अपनी पत्नी नागवसु के रूप-चिंतन में बिता देता है, अपनी प्रिया का निशिदिन ध्यान करता रहता है । बारह वर्ष की अवधि के पश्चात् गांव लौटना होता है और प्रिया द्वारा उद्बोध प्राप्त होता है । इस प्रकार काव्य की कथावस्तु विप्रलम्भ शृंगार से प्रारम्भ होकर शांत रस में समाविष्ट हो जाती है । "जंबूसामिचरिउ'' में शृंगार के वर्णनों की बहुलता है ! कविश्री इनके द्वारा सांसारिक विषयों की ओर प्रवृत्त करते हैं । शृंगारमूलक वीर रस के वर्णनों में वीर रस के प्रसंग भी मिलते हैं । इस प्रकार के प्रसंग अपभ्रंश काव्यों में प्रायः मिलते हैं। इन दोनों रसों का पर्यवसान शांत रस में होने से इस महाकाव्य को "शृंगार वीर काव्य" कहना कहाँ तक न्यायसंगत है ? काव्य में सांसारिक विषयों का त्याग कर वैराग्य भाव जागृत करने में ही उत्साह भाव दिखाई देता है अतएव इसे "शृंगार वीर काव्य" कहा जाता है ! लेकिन विचार कर देखें तो कृति को "शृंगारवैराग्यपरक" काव्यकृति कहना अधिक समीचीन लगता है। डॉ. रामसिंह तोमर भी इसी मत के हैं । पांचवी सन्धि के अन्तर्गत युद्ध के प्रसंग में वीभत्स और अद्भुत रस भी पाये जाते हैं जो वीर रस के सहायक हैं। . इस प्रकार इस काव्य में विविध रसों की मंदाकिनी प्रवहमान है जो अन्त में शांत रस के महार्णव में लीन हो गई है । भाषासौष्ठव "जंबूसामिचरिउ' की भाषा बहुत ही प्रांजल, सुबोध, सरस और गम्भीर अर्थ की प्रतिपादिका है और इसमें पुष्पदन्त आदि महाकवियों के काव्यग्रन्थों की भाषा के समान ही प्रौढ़ता और अर्थ-गौरव की छटा यत्र-तत्र-सर्वत्र बिखरी पड़ी है। वस्तुतः इस कृति की भाषा नागर अपभ्रंश है जिसमें स्वयंभू, पुष्पदंत, धनपाल प्रभृति कवियों ने काव्यरचना की है । कविश्री ने भावानुकूल भाषा का प्रयोग किया है उसमें वेग और प्रवाह परिलक्षित हैं, यथा को दिवायरगमणु पडिखलई । जममहिसिंगुक्खणइ कवणु गरुडमुहकुहरे पइसइ । को कूरग्गहु निग्गहइ को जलंते सव्वासे पइसइ । को वा. सेसमहाफर्णेहिं फणमणि मंड-हरेइ । को कप्पंतुळंतु जलु जलनिहिं भुएहिं तरेइ। 5.5.1-5 भाषा में कवि ने अनुरणनात्मक शब्दों का प्रयोग भी किया है। युद्ध के समय बजते हुए नाना वाद्यों की ध्वनि स्पष्ट सुनाई देती है, यथा डक्कडमडक्क- डमडमियडमरुभडं, घंट- जयघंट- टंकाररहसिहभडं । ढक्क त्रं त्रं हुडुक्कावलीनाइयं, रुंजगुंजंत- संदिण्णसमघाइयं । थगगद्ग-थगगद्ग थगगदुगे सज्जियं, किरिरिकिरि-तटकिरिकिरिरि किर वज्जियं । 5.6 9-1
SR No.524755
Book TitleJain Vidya 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages158
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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