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________________ जैनविद्या 19 एयारण वयणतुल्लो होमि न होमि त्ति पुणिमावियहे । थिर मंडलाहिलासी चरइ व चंदायणं चंदो ॥ चलणच्छवि-सामफलाहिलासी कमलेहि सूरकरसहरण । चिज्जइ तवं व सलिले निययं चित्तूण गलपमाणम्मि ॥10 अर्थात् इन सुन्दरियों के मुख के समान होऊंगा या नहीं, यही विचारता हुआ प्रियमण्डल का अभिलाषी चन्द्रमा मानो चान्द्रायण व्रत किया करता है । उनके चरणों की शोभा की समता के अभिलाषी इन कमलों से अपने को गले तक पानी में डाल कर और ऊपर सूर्य की किरणों को सहते हुए मानों नित्य तप किया जाता है । कवि ने बड़ी सुन्दर अभिव्यक्ति की है ऐसा प्रतीत होता है कि ब्रह्मा ने सामान्य संसार की रचना की । इन सुन्दरियो की रचना कोई अन्य ही प्रजापति करता है ।1 . रस-योजना कवि ने ग्रन्थ समाप्ति की पुष्पिका में अपने चरित काव्य को शृंगार वीर महाकाव्य कहा है ।12 इस चरितकाव्य में शृंगार रस की सुन्दर व्यञ्जना तो अनेक स्थलों पर हुई है 'किन्तु युद्ध-वर्णन में भी वीर रस की निष्पत्ति नहीं हो पाई है । सभी चरितकाव्यों में विवाह से पूर्व वीरता प्रदर्शन के अवसर मिलते हैं, प्रस्तुत काव्य में भी यह परम्परा मिलती है । जम्बू के विवाह के लिए अनेक सुन्दरियों के चित्र आए जिनका चित्रोपम वर्णन कवि ने किया है । केरलि, कोतलि, सज्झाइरि (सह्याचलवासिनी), मरहट्ठी, मालविणि आदि अनेक प्रकार की स्त्रियों के स्वभाव का भी कवि ने सुन्दर निर्देश किया है ।13 इस प्रकार कवि ने नायिका भेद का अस्फुट सा प्राभास प्रस्तुत किया है और शृंगार के उद्दीपन के लिए अनेक प्राकृतिक दृश्य उपस्थित किये हैं ।14 फिर काव्य का परिणामी रस शान्त रस है और निर्वेद भाव की अभिव्यक्ति हुई है । काव्य आदि और अन्त में धार्मिक पर्यावरण प्रस्तुत करता है। शृंगार और वीर रसपरक इस चरितकाव्य का पर्यवसान शान्तरस में होने से इसे शृंगार-वीर काव्य नहीं कह सकते । काव्य में सांसारिक विषयों को त्यागकर वैराग्य भाव जागृत करने में ही कवि का उत्साह परिलक्षित होता है । श्रांगारिक भावों को दबाकर उन पर विजय पाने में ही वीरता दिखाई पड़ती है और इसी दृष्टि से इसे शृंगार-वीर काव्य कहा जा सकता है। डॉ. रामसिंह तोमर ने इसे शृंगार-वैराग्य परक चरितकाव्य कहा है ।15 यही मत अधिक संगत प्रतीत होता है । इस चरितकाव्य में शृंगार और वीर के सहायक रस भी पाये जाते हैं। प्रकृति के उद्दीपन रूप में वर्णन रति भावानुकूल कोमल और मधुर पदावली में प्रस्तुत हैं, जैसे वसंतवर्णन 116 इसी प्रकार राजा की उद्यान-क्रीड़ा का वर्णन एवं उसकी पदयोजना भावानुकूल ही हुई है। उद्यान में भ्रमरों का गुंजन, राजा का मंद-मंद भ्रमण, पुष्प-मकरन्द से सरस एवं पराग रज से रजित, शांत और मधुर वातावरण शब्दों के द्वारा अभिव्यंजित हो उठता है और पाठक के समक्ष एक शब्द-चित्र प्रस्तुत हो जाता है ।17 भाषा-सौष्ठव वीर कवि ने अपने काव्य में भावानुकूल भाषा का प्रयोग किया है। उनकी भाषा प्रवाहपूर्ण एवं प्रांजल है । यथा
SR No.524755
Book TitleJain Vidya 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages158
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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