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________________ 108 जनविद्या ___ तइलोयसामि-सममित्तसत्तु [(तइलोय)-(सामि)-(सम) वि-(मित्त)-(सत्त)*2/1] वयणसुहासासियसयलसत्तु [(वयण)-(सुहा)-(सास-+सासिय) भूकृ-(सयल) वि-(सत्तु) 1/1] + कभी द्वितीया विभक्ति का प्रयोग सप्तमी अर्थ में किया जाता । (हेम प्राकृत व्याकरण, 3-137) । (मैं) जिनेश्वर, वर्द्धमान को प्रणाम करता हूँ, जिनके द्वारा जगत् में (प्राणियों के लिए) (सदैव) (अध्यात्म में) बढ़ता हुआ मार्ग दिखाया गया (है)। (जिनका) देवों सहित असुरों द्वारा जन्माभिषेक किया गया (है) (और) (जो) संसाररूपी (मानसिक तनावरूपी) समुद्र से पार पहुंचाने में सेतु-रूप (हैं)। (जिनके द्वारा) अगूठे के अग्रभाग से (ही) स्थिर मेरु डिगा दिया गया (है), (और) (जिनके द्वारा) इन्द्र की जटिल शंकाएँ पूर्णरूप से मिटा दी गई (हैं) । (जिनके द्वारा) नखों की प्रभा से सूर्य और चन्द्रमा की कान्ति फीकी कर दी गई (है), (तथा) (जिनके द्वारा) (समस्त) लोकालोक की अवस्था पूर्णरूप से जान ली गई (है)। (जिनका) साधु-समुदाय (स्थान-स्थान पर) ले जाया गया (है) (इसलिए) (उनका) जगत् में प्रभुत्व (है), तथा जो चारों गतियों में दुःख से हैरान किये गये जीवों के लिए रक्षास्थल (हैं)। __ (जिनके द्वारा) ध्यानरूपी अग्नि से कर्म-बन्धन राख कर दिया गया (है) (तथा) (जो) मुक्तिगामी मनुष्यरूपी नील कमलों के (विकास के लिए सूर्य (हैं)। (जिनके द्वारा) श्रेष्ठ और मनोहर मुक्तिरूपी लक्ष्मी गले लगाली गई है, (तथा) (जिनके द्वारा) रत्नत्रय से परम शान्ति प्राप्त करली गई (है)। (जो) तीन लोक के स्वामी हैं और मित्र तथा शत्रु में समतावान् (हैं), (तथा) (जिनके द्वारा) सम्पूर्ण प्राणी जगत् उपदेशरूपी अमृत से आकर्षित किया गया (है)। तित्थंकर केवलनाणधरु सासयपयपहु सम्मइ । जरमरणजम्मविद्धंसयरु देउ देउ महु सम्मइ ॥ 1.1.11-12 तित्थंकरु (तित्थंकर) 1/1 केवलनाणधरु [(केवल) वि (नाण)-(घर) 1/1वि] सासयपयपहु [(सासय) वि-(पय)-(पह) 1/1] सम्मइ (सम्मइ) 1/1 जरमरणजम्मविद्धंसयर [(जर')-(मरण)-(जम्म)-(विद्धंसयर)1/1 वि] देउ (दा) विधि 3/1 सक महु (अम्ह)4/1 स सम्मइ (सम्मइ) 2/1 । + जरा+जर (समास में दीर्घ के स्थान पर हृस्व; हे. प्रा. व्या. 1-4)। तीर्थंकर महावीर (जो) केवलज्ञान के धारक (हैं); शाश्वत पद के स्वामी (हैं); बुढ़ापा, मृत्यु और जन्म के नाशक (हैं); मेरे लिए सन्मति देवें, (सन्मति) देवें ।
SR No.524755
Book TitleJain Vidya 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1987
Total Pages158
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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