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आस्रवानुप्रेक्षा तणु-मण-वयण जोउ जीवासउ,
___ कम्मागमणवार प्रासउ । प्रसुहजोएँ जीवहो सकसायहो,
लग्गइ निविडकम्ममलु प्रायहो। कप्पडे जेम कसायइ सिटुउ,
जायइ बहलरंगु मंजिउ । प्रबलु नरिंदु जेम रिउसिमिरे,
मंदुज्जोउ दोउ जिह तिमिरें । जीउ वि वेडिज्नइ तिह कम्में;
निषडइ दुक्खसमुद्दे प्रहम्में । प्रकसायहो पासवू सुहकारणु,
कुगइ-कुमाणुसत्तविणिवारणु । सुहकम्मेण जीउ अणु संचइ,
तित्थयरत्तु गोत्तु संपज्जइ ।
प्रर्य-जीव के आश्रय से होनेवाला तन, मन व वचन का योग (क्रिया) ही कर्मों के आगमन का द्वार है, वही आस्रव है । सकषाय जीव के अशुभ योग के कारण घना कर्ममल इस तरह पाकर लग जाता है जैसे कषाय (गोंद) लगे कपड़े में मंजीठ का रंग खूब गाढ़ा हो जाता है । जिस प्रकार दुर्बल राजा को शत्रुसेना के द्वारा, मंद प्रकाशवाले दीपक को अंधकार के द्वारा घेर लिया जाता है उसी प्रकार सकषाय जीव भी कर्मों से वेष्टित कर लिया जाता है और तब जीव अधर्म करके दुःख समुद्र में पड़ता है । अल्पकषायवाले जीव का आस्रव शुभबंध का कारण होता है और वह कुगति में जन्म नहीं होने देता, कुमार्गरत मनुष्य नहीं बनने देता। शुभक्रिया के द्वारा कर्म-परमाणुषों का संचय करनेवाला जीव तीर्थंकर गोत्र को प्राप्त कर लेता है।
नं. सा च. 11.7.2-8