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________________ जैनविद्या से आत्मा की उत्पत्ति होती तो श्रौषधियों के क्वाथ से किसी भी पात्र में जीव शरीर उत्पन्न हो जाते, परन्तु ऐसा होता नहीं । पंच भूतों में परस्पर विरोधिता है तो वे एक भावात्मकता का प्ररूपण कैसे करते ? सभी जीवों का स्वभाव एक-सा क्यों नहीं ?10 जसहरचरिउ में तलवर (कोतवाल) भौतिकतावादी है। मुनि ने उसके मन्तव्य का खण्डन किया है । उन्होंने कहा कि यह जीव कर्म के कारण संसार में भटकता रहा है, विविध जन्म धारण करता रहा है, पंचेन्द्रिय सुखों से मात्र दुःख मिला है इसलिए मैं इस कर्मजाल को तपस्या के माध्यम से निर्जीर्ण करने में लगा हुआ हूँ । जीव और शरीर दोनों पृथक्-पृथक् हैं । यह शरीर बैलगाड़ी के समान है। जिस प्रकार बैल के बिना गाड़ी नहीं चल सकती उसी प्रकार जीव के बिना देह नहीं चल सकता । फिर स्वकृत कर्मों का फल भोगना भी अनिवार्य है । 93 कोतवाल ( तलवर) ने पुनः पुष्प और गन्ध की अभिन्नता का उदाहरण देकर जीव और शरीर की एकात्मकता को सिद्ध करने का आग्रह किया । मुनि ने उत्तर दिया - जैसे चम्पक पुष्प तेल में डालने से तेल सुगन्धित हो जाता है पर चम्पक का अस्तित्व समाप्त नहीं होता । इसी तरह जीव और शरीर पृथक्-पृथक् ही मानना पड़ेगा। जहाँ तक उसके अदृश्य रहने का प्रश्न है, उससे उसके अस्तित्व पर प्रश्न / संदेह नहीं किया जा सकता । वह तो अपने अमूर्तत्व गुरण के कारण दिखाई नहीं देता । शब्द दिखाई नहीं देता पर कान के द्वारा सुनाई तो देता ही है । अतः जीव की सत्ता अनुमान द्वारा ही गम्य है । स्थूल इन्द्रियां उस सूक्ष्म सत्ता को देख नहीं सकतीं । ये जीव का शरीर से कैसे निर्गमन होता है और कैसे जन्म धारण करता है उसका उत्तर देते हुए मुनि ने पुनः स्पष्ट किया है कि जिस प्रकार लोहा चुम्बक से आकर्षित होता है उसी प्रकार जीव ( आत्मा ) अपने कृतकर्मों के कारण संसार में जन्म-मरण लेता रहता है । 'मुनि ने आगे और भी तर्कों द्वारा आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध किया है । उन्होंने कहा कि यदि आत्मा सदैव एकरूप, निश्चल और निष्क्रिय रहेगा तो कर्मबंध कैसे होगा ? गुरु-शिष्य प्रादि जैसे सम्बन्ध कैसे बनेंगे ? यदि प्रात्मा सर्वथा शुद्ध है तो स्वर्ग, मोक्ष की कामना की क्या आवश्यकता ? जीव के बिना फिर शय्या स्पर्श, रसास्वादन आदि कैसे होगा ? कौन करेगा ? बिना जीव के पाँचों तत्त्व निश्चेष्ट हैं । चार्वाक मात्र प्रत्यक्ष प्रमाण को मानता है। ऐसी स्थिति में फिर वह अपने घर रखे अदृश्य धन को देख जान नहीं सकेगा । दूरवर्ती, सूक्ष्मवर्ती और तिरोहित द्रव्यों को भी समझ नहीं सकेगा। गाना-बजाना, मरना, इन्द्रियसुख भोगना आदि कार्य आत्मा के अस्तित्व को माने बिना संभव नहीं हो सकते । वह अनुभव से अनुमित ही होता है अमूर्त गुण के काररण द्रष्टव्य नहीं । इस तरह महाकवि ने तलवर (कोतवाल) के भौतिकतावादी दृष्टिकोण को सुन्दर व्यावहारिक तर्कों का आश्रय लेकर खण्डित किया है और जैन दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया
SR No.524752
Book TitleJain Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages152
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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