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________________ जनविद्या 89 - इस प्रकार स्पष्ट है कि गुणभद्र एवं पुष्पदंत की परम्परा में पर्याप्त नवीनता है । यह रामकथा प्रचलित प्राचीन परम्परा से सर्वथा भिन्न है। अतः जिज्ञासा होती है कि गुणभद्र (वीं शताब्दी) ने पूर्ववर्ती प्रचलित रामकथाओं का आश्रय न लेकर यह नवीन परम्परा किस आधार से प्राप्त की है ? गुणभद्र का आधार बहुत कुछ अज्ञात है। प्राचार्य जिनसेन (गुणभद्र के गुरु) अपने आदिपुराण में कवि परमेश्वर की गद्य-कथा का उल्लेख करते हैं और उसे अपनी रचना का आधार मानते हैं । गुणभद्र जिनसेन की शेष रचना पूर्ण करते हैं प्रतः संभव है कि वे भी गुरु की भाँति कवि परमेश्वर की कथा पर निर्भर रहे हों । कवि परमेश्वर की रचना अप्राप्य है। पण्डित नाथूराम प्रेमी का अनुमान है कि गुणभद्र से बहुत पहले विमलसूरि के ही समान किसी अन्य प्राचार्य ने भी स्वतंत्र रूप से जैनधर्म के अनुकूल सोपपत्तिक और विश्वसनीय रामकथा लिखी होगी और वह गुणभद्राचार्य को गुरु-परम्परा द्वारा प्राप्त हुई होगी। इस प्रकार अपभ्रंश महाकवि पुष्पदंत ने गुणभद्र की इस नवीन धारा को अपने महापुराण की रामकथा का आधार बनाया है यह स्पष्ट है। 1. पद्मपुराण - प्राचार्य रविषेण, प्रस्तावना पृष्ठ 13 प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ 2. रामकथा - कामिल बुल्के, पृष्ठ 65, अनु. 57 प्रकाशक - हिन्दी परिषद् प्रकाशन, प्रयाग विश्वविद्यालय 3. उत्तरपुराण - प्राचार्य गुणभद्र, 67-68 पर्व प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ 4. महापुराण - महाकवि पुष्पदंत, 69 पर्व से प्रारम्भ ___प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ 5. प्रालिहिउं पत्तु मच्छरकराल, रावण देहुब्भव एह बाल । बहु दुक्खजोणि बंधुहं असीय, सुविसुद्ववंस णामेण सीय ॥ (अप. म. पु. 70.8) 6. (अ) सुरसरि झसमुद्धहु होई समुद्दहु एउ जम्मि वि पंकय सरहं । (पुष्प. म. पु. 71.2) (ब) धन्यान्यत्र न सा स्थातुं योग्या भाग्यविहीनके । मन्दाकिन्याः स्थिति क्व स्यात् प्रविहत्य महाम्बुधिम् ।। (गुण. म. पु. 68.103) 7. यहां प्राचार्य रविषेण की रामकथा के लिए "प्रथम धारा" व प्राचार्य गुणभद्र की - रामकथा के लिए "द्वितीय धारा" शब्द का प्रयोग किया गया है। 8. आदिपुराण - प्राचार्य जिनसेन, 1.60, प्रस्तावना पृष्ठ 282 - प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ 9. जैन साहित्य और इतिहास - पं० नाथूराम प्रेमी, पृष्ठ 282 सम्बन्धित लेख - पद्मचरित और पउमचरिउ
SR No.524752
Book TitleJain Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages152
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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