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________________ जनविद्या 81 मिथिला के तत्कालीन राजा जनक ने एक यज्ञ का अनुष्ठान करवाया। युवराज राम व लक्ष्मण को यज्ञरक्षार्थ समर्थ जानकर जनक ने दशरथ के पास, उन्हें मिथिला भेजने हेतु निमन्त्रण भेजा और अपनी पालिता पुत्री सीता के साथ "राम" के विवाह का प्रस्ताव कहलवाया (67.179-80) । सीता अपने पूर्वभव में स्थालंक नगर के राजा अमितवेग की पुत्री मणिमति के रूप में थी। एक दिन वह वन में विद्यासिद्धि हेतु साधनारत थी। उसी समय दाक्षिणात्यनगर मेघकूट के राजा पुलस्त्य व रानी मेघश्री का पुत्र रावण अपनी पत्नी मन्दोदरी के साथ वहाँ वनबिहार के लिए आया। उस अनिन्द्य सुन्दरी मणिमति को देख रावण मोहित हो गया और दुर्लक्ष्य में प्रवृत्त होकर मणिमति की साधना में विघ्न करने लगा। साधनारत मणिमति विघ्न के कारण क्रुद्ध हो उठी। उसने निदान किया कि मैं इस दुर्बुद्धि राजा की पुत्री होकर इसका सर्वनाश करूं (68.16)। इस निदान के फलस्वरूप वह मन्दोदरी से पुत्रीरूप में उत्पन्न हुई। उसके जन्म के समय पर हुए भूकम्प आदि उपद्रवों के आधार से निमित्तज्ञानियों ने बताया कि यह बालिका अपने पिता रावण के सर्वनाश का कारण बनेगी। अपने भावी सर्वनाश की आशंका से भयभीत रावण ने उसी समय उस सर्वनाशी नवागता पुत्री के निष्कासन हेतु आज्ञा दी। राजाज्ञा के अनुसार एक मंजूषा में प्रचुर धन के साथ उस सद्यःप्रसूता बालिका को रखकर मिथिला के समीप उद्यान में रख दिया गया। __ मिथिला के राजा जनक ने उद्यान से प्राप्त उस कन्या को “सीता" नाम से संबोधित किया और अत्यन्त गुप्तरूप से पुत्रीवत् पालनकर उसके गुणों की अभिवृद्धि की। रावण को उस बालिका के सम्बन्ध में कुछ भी स्मरण/ज्ञान न रहा । यज्ञ - अनुष्ठान के समय राजा जनक ने रावण को आमन्त्रित भी नहीं किया । राजा दशरथ ने चतुरंगिणी सेना से विभूषित राम व लक्ष्मण को राजा जनक द्वारा सम्पाद्य यज्ञ की रक्षार्थ भेजा (68.28-30)। यज्ञ की विधिवत् निर्विघ्न समाप्ति के बाद राजा जनक ने सीता के साथ युवराज राम का विवाह सम्पन्न कराया (68.31-34)। विवाहोपरान्त राम सीता के साथ अयोध्या लौट आये । सुदीर्घ परम्परा से प्राप्त बनारस राज्य को पुनः अपने संरक्षण में लेने हेतु राम व लक्ष्मण पिता दशरथ की आज्ञा प्राप्त कर बनारस चले गये (68.77-80) और कुशलतापूर्वक प्रजापालन करने लगे। एक दिन नारद ने आकर गर्वोन्मत्त रावण को बहकाया कि राजा जनक ने यज्ञ के बहाने दशरथपुत्र राम को अपने यहां बुलाकर अपनी अनन्यसुन्दरी पुत्री सीता के साथ उसका विवाह करा दिया। नारद सीता के सौन्दर्य की अतिशय प्रशंसा करते हुए कहने लगे कि वह स्त्रीरत्न तो सर्वथा तुम्हारे उपयुक्त था किन्तु राजा जनक ने उसे तुम्हें प्रदान न कर राम के समक्ष तुम्हें अवमानित किया है (68.94-99) । भ्रमितबुद्धि रावण सौन्दर्यप्रशंसा सुनकर ही सीता के प्रति आसक्त होने लगा । अभिमान से अभिषिक्त रावण समझने लगता है कि वह भाग्यशालिनी भाग्यहीनों के पास रहने लायक नहीं है, एक मात्र मैं ही
SR No.524752
Book TitleJain Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages152
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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