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________________ 2 'मुनिसुव्रतस्तोत्रम् ' एवं श्री धर्मघोषसूरि ( 14वीं श . ) की 'महावीर - कलश' रचनाएं अपभ्रंश में ही निबद्ध हैं । जिस भाँति संस्कृत ' श्लोक' और प्राकृत 'गाथा' छन्द के लिए प्रसिद्ध है वैसे ही अपभ्रंश में 'हा' छन्द का प्रयोग सबसे अधिक हुआ है । दूहा साहित्य को दो भागों में बांटा जा सकता है - 1. भाटों तथा चारणों आदि द्वारा निर्मित शृंगार एवं वीररसप्रधान साहित्य और 2 जैन साधकों द्वारा शान्तरसप्रधान आध्यात्मिक साहित्य | हिन्दी का 'निर्गुण भक्ति काव्य' अपभ्रंश के जैन दूहा साहित्य से प्रभावित है । दोनों की अधिकांश प्रवृत्तियां समान हैं। डॉ० हीरालाल जैन के शब्दों में- 'इनमें वह विचार - स्रोत पाया ता है जिसका प्रवाह हमें कबीर की रचनाओं में प्रचुरता से मिलता है।' डॉ० रामसिंह तोमर ने भी कहा है - 'जो भी हो, हिन्दी साहित्य में इस रहस्यवाद - मिश्रित परम्परा के श्रादि-प्रवर्तक कबीर हैं और उनकी शैली, शब्दावली का पूर्ववर्त्ती रूप जैन अपभ्रंश रचनाओं में प्राप्त होता है । कबीर निर्गुण ब्रह्म के उपासक थे । उनका ब्रह्म ऐसा व्यापक था जो भीतर से बाहर एवं बाहर से भीतर तक फैला था । वह अभावरूप भी था और भावरूप भी, निराकार भी था और साकार भी, द्वैत भी था और अद्वैत भी । स्पष्ट है कबीर का ब्रह्म कथा | अनेकान्त जैनदर्शन का प्रमुख प्रसिद्ध सिद्धान्त है । कबीर के 'निर्गुण में सगुण और सगुण में निर्गुण' सिद्धान्तवाली बात जैन अपभ्रंश दोहा साहित्य में स्पष्टतः उपलब्ध है। कबीर ने जिस ब्रह्म को निर्गुण कहा है उसे ही दिगम्बर जैन अपभ्रंश रचनाकार प्रा. योगीन्दु ने अपने 'परमात्मप्रकाश' में निष्कल ( पंचविध शरीर रहित ), 'निरंजन, निराकार आदि कहा है। अन्य कई जैन रचनाकारों ने भी ब्रह्म के इस स्वरूप का वर्णन किया है । जैन अपभ्रंश साहित्य की दूसरी महत्त्वपूर्ण विधा है प्रबंधकाव्य जिसमें मानवजीवन से संबंधित विभिन्न पहलुओंों का स्पर्श कर उनका विचार किया गया है। इसे दो भागों में विभक्त किया जा सकता है 1. पौराणिक शैली इस शैली में स्वयंभू के 'पउमचरिउ', पुष्पदंत के 'महापुराण', वीरू कवि के 'जम्बूस्वामीचरिउ' एवं हरिभद्र के 'मिराहचरिउ ' आदि को सम्मिलित किया जा सकता है । 2. रोमांचक शैली- धनपाल धक्कड़ की 'भविसयत्तकहा', पुष्पदंत का 'गायकुमारचरिउ', नयनंदि का 'सुदंसणचरिउ' आदि रचनाएं इस शैली की उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत की जा सकती हैं। पुष्पदंत के महापुराण के सम्पादक डॉ. पी. एल. वैद्य की मान्यता है कि यह महापुराण महाकाव्यों में एक उच्चकोटि का ग्रंथ है । इसी प्रकार 'पायकुमारचरिउ' की भूमिका में डॉ. हीरालाल जैन ने इसे एक उत्तम कोटि का प्रबंधकाव्य प्रमाणित किया है । पाटण एवं कई अन्य स्थानों के जैन ग्रंथ भण्डारों में अपभ्रंश भाषा का साहित्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है जिस पर विद्वानों द्वारा शोध करने की प्रति आवश्यकता है । श्राज भारत के विभिन्न स्थानों में इस भाषा का जो प्रभूत साहित्य उपलब्ध है उसका प्रमुख श्रे दिगम्बर जैन समाज तथा उसके भट्टारकों, पण्डितों आदि को है जिन्होंने मुस्लिम काल के
SR No.524752
Book TitleJain Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages152
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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