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जैन विद्या
"डॉ० नगेन्द्र” ने बिम्ब पर अनेक दृष्टिकोणों से विचार करते हुए लिखा है - "बिम्ब पदार्थ नहीं है वरन् उसकी प्रतिकृति या प्रतिच्छवि है । वह मूल सृष्टि नहीं, पुनः सृष्टि है । यह एक ऐसा चित्र है जो किसी पदार्थ के साथ विभिन्न इन्द्रियों के सन्निकर्ष से प्रमाता के चित्त में उद्बुद्ध होता है । सामान्य बिम्ब और काव्य- बिम्ब में अन्तर यह है कि काव्य- बिम्ब का निर्माण सर्जनात्मक कल्पना से होता है और इसके मूल में राग की प्रेरणा अनिवार्यतः रहती है ।
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भारतीय काव्यमीमांसा में बिम्ब का विवेचन प्रकारान्तर से हुआ है । यद्यपि काव्य के बिम्बात्मक रूप का विचार भारतीय काव्यशास्त्र के लिए नई बात नहीं है और अलंकारवादियों तथा ध्वनिवादियों ने इसकी स्वरूपगत विशिष्टताओं को प्रस्तुत करने का पूर्ण प्रयास किया है किन्तु आधुनिक अर्थ में उसे विवेचित नहीं किया गया, यह सत्य है ।
अलंकार - शास्त्र में दृष्टान्त और निदर्शना के प्रसंग में "बिम्ब" शब्द का प्रयोग हुआ है । जहाँ उपमेय, उपमान और सामान्य धर्म का बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव हो वहाँ दृष्टान्त अलंकार होता है और जहाँ वस्तुनों का परस्पर सम्बन्ध उनके बिम्ब प्रतिबिम्ब का बोध करे वहाँ निदर्शना अलंकार है । यहाँ पर अप्रस्तुत प्रस्तुत का बिम्ब उपस्थित करता है ।
safa - सम्प्रदाय आधुनिक बिम्ब-विधान के सर्वाधिक निकट है । " आनन्दवर्द्धन” ने वाच्यार्थ से भिन्न प्रतीयमान अर्थ को काव्य की आत्मा कहा है और अंगना के अवयवों से सर्वथा भिन्न लावण्य से उसकी उपमा दी है :
प्रतीयमानं पुनरन्यदेव वस्त्वस्ति वाणीषु महाकवीनाम् । यत् तत् प्रसिद्धावयवातिरिक्तं विभाति लावण्यमिवांगनासु ॥
"महाकवियों की वाणियों में वाच्यार्य से सर्वथा भिन्न प्रतीयमान कुछ और ही वस्तु है जो प्रसिद्ध अलंकारों अथवा प्रतीत होने वाले अवयवों से भिन्न अंगनाओं के लावण्य के समान अलग ही प्रकाशित होता है ।"
काव्य का विभावन व्यापार मूर्त पक्ष है और अभिधेयार्थ से भिन्न प्रतीयमान अर्थ अमूर्त पक्ष । मूर्त्त शब्द से अमूर्त रमणीय अर्थ की व्यजंना में बिम्बविधान स्पष्ट है । "अभिनवगुप्त" ने "अभिज्ञान शाकुन्तलम् " का " ग्रीवाभंगाभिरामम् "4 छन्द उद्धृत करते हुए लिखा है कि उससे मानसी साक्षात्कारात्मिका प्रतीति होती है, साक्षात् हृदय में प्रविष्ट होता हुआ सा आँख के आगे घूमता हुआ सा भयानक रस होता है ।
"डॉ० नजेन्द्र " ने काव्य- बिम्ब और ध्वनि का घनिष्ट सम्बन्ध स्वीकार किया है ।
बिम्ब का सम्बन्ध लक्षणा, व्यंजना अथवा ध्वनि से अपेक्षाकृत अधिक घनिष्ट है । लक्षणा में मूर्ति-विधान की स्वाभाविक क्षमता निहित है, अतः बिम्ब-निर्माण उसका सहज गुण है । व्यंजना में भी बिम्ब उद्बुद्ध करने की शक्ति है और ध्वनि के अनेक भेद बिम्ब रूप होते हैं । ध्वनि का मूल आधार वैयाकरणों का स्फोट है और स्फोट की कल्पना बिम्ब के मूल रूप से काफी निकट है ।"5