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________________ 140 जैनविद्या (26) डॉ० कृष्णचन्द्र वर्मा, प्रोफेसर तथा प्रध्यक्ष - हिन्दी विभाग, शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, लश्कर, ग्वालियर - "पत्रिका में प्रकाशित विविध समीक्षात्मक निबंधों के माध्यम से अपभ्रंश साहित्य के प्रादि महाकवि स्वयंभू का व्यक्तित्व, कर्तृत्व एवं प्रदेश असाधारण सुन्दरता से उद्भासित हो उठा है । मुझे लगता है कि इस प्रकार की पत्रिका समाजोत्थान की दिशा में प्रचुर योगदान कर सकती है और सुपठित साहित्यिक समाज के लिए भी पर्याप्त ज्ञानवर्धक है क्योंकि सामान्यत: पढ़े-लिखे लोग भी अपभ्रंश साहित्य और उसके महान् सर्जकों के प्रदेय से परिचित नहीं हैं । निबंधों का संचयन, संकलन अत्यन्त विवेकपूर्ण है तथा सभी निबंध विषय के उत्कृष्ट विद्वानों, प्रेमियों और निष्ठावान् साहित्यविदों के गम्भीर अध्ययन से प्रेरित और प्रसूत हैं। ऐसी प्रसाधारणरूप से उत्कृष्ट पत्रिका के प्रकाशन के लिए बधाई ।" ( 27 ) पं० प्रमृतलालजी शास्त्री, साहित्याचार्य, ब्राह्मी विद्यापीठ, लाडनूं - "प्रस्तुत विशेषांक से जो अनेक विद्वानों के पठनीय लेखों से अलंकृत है, संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषाओं के अधिकारी विद्वान् महाकवि स्वयंभू तथा उसके साहित्य का सर्वांगीण परिचय प्राप्त हो जाता है । विशेषांक का कागज छपाई, सफाई, प्रूफसंशोधन तथा गैटअप आदि सभी नयनाभिराम हैं । यदि अगले अंक भी इसी ढंग से निकलते रहे तो इस समय प्रकाशित होनेवाली दिगम्बर जैन समाज की शोध पत्रिकाओं में इसे विशिष्टि स्थान प्राप्त होगा । (28) श्री पार्श्वनाथ विद्याश्रम, हिन्दू यूनिवर्सिटी, बनारस का प्रमुख पत्र " श्रमरण", वर्ष 35 अंक 10 अगस्त 1984, पृष्ठ 47 - " स्वयंभू विशेषांक" निश्चय ही एक स्तरीय प्रकाशन है। किसी साहित्यकार के व्यक्तित्व और कर्तृत्व का बहुविध विश्लेषण शोधार्थियों की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण होता है | स्वयंभू का स्थान अपभ्रंश साहित्य में महत्त्वपूर्ण है । उनके व्यक्तित्व और कर्तृत्व पर जैनविद्या एवं अपभ्रंश भाषा के विद्वानों द्वारा लिखे गये ये विविध लेख कवि के व्यक्तित्व पर अच्छा प्रकाश डालते हैं । इससे शोध छात्रों एवं विद्वानों दोनों को ही लाभ होगा । अपेक्षा यह है कि इस प्रकार एक-एक साहित्यकार को लेकर यदि लिखा जाता रहा तो जैनविद्या की महती सेवा होगी। अंक संग्रहणीय एवं पठनीय है । गेटअप और साजसज्जा भी आकर्षक है ।"
SR No.524752
Book TitleJain Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages152
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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