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________________ 136 जनविद्या (5) डॉ० योगेन्द्रनाथ शर्मा "अरुण", एम०ए०, पीएच०डी०, रीडर तथा अध्यक्ष - हिन्दी विभाग, वी०एस०एम० पोस्टग्रेजुएट कॉलेज, रुड़की___ "निःसन्देह पत्रिका का स्तर एवं मुद्रण अत्यन्त सराहनीय है। शोध निबंधों का चयन आपके सम्पादन कौशल का परिचायक है । शोध-पत्रिकाओं में "जैनविद्या" का अपना ही स्थान बनेगा, यह विश्वास मुझे है।" (6) पं० जगन्मोहनलालजी जैन शास्त्री, कुण्डलपुर (दमोह) - - "श्री महावीर क्षेत्र के सुयोग्य कार्यकर्ताओं ने जैनविद्या संस्थान की स्थापना कर बहुत बड़ा आदर्श उपस्थित किया है । "जैनविद्या" का स्वयंभू अंक देखा। सभी लेख बहुत उच्चकोटि के व शोधपूर्ण हैं । सभी लेखकों ने भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से स्वयंभू पर प्रकाश डाला है। उन लेखों से ही कविवर स्वयंभू और उनके ग्रंथ पउमचरिउ पर उत्तम प्रकाश पड़ता है तथा उनकी महत्ता अंकित होती है । .............."शोध पत्रिकायें और भी देखी हैं पर उनमें अलग-अलग विषय को लेकर अलग-अलग ग्रन्थ व ग्रन्थकार को लेकर लेखक अपना लेख लिखता है और उनका उसमें संग्रह रहता है। पर इसमें विभिन्न विद्वान् लेखकों ने एक ही ग्रंथ पर एक ग्रंथकार के ऊपर विभिन्न दृष्टिकोणों से उसकी महत्ता प्रदर्शित की है। किसी का लेख किसी अन्य लेख की पुनरुक्तिरूप नहीं है यह देख कर आश्चर्य होता है। मैं आपको, आपके सम्पादक मण्डल को तथा सभी विद्वान् लेखकों को इसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ।" (7) डॉ० फूलचन्द जैन प्रेमी, अध्यक्ष - जैनदर्शन विभाग, संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी "जनविद्या" का स्वयंभू विशेषांक देख कर मन हर्षित हो उठा। ऐसे नये संस्थान से इतने उच्चपरम्परा और गौरवपूर्ण विशेषांक की हमें यही अपेक्षा थी। महाकवि स्वयंभू के व्यक्तित्व और कर्तृत्व के सर्वांगीण अध्ययन के लिए यह विशेषांक परिपूर्ण है । प्राशा है इसी प्रकार सभी जैन आचार्यों और महाकवियों के अध्ययन की परम्परा चालू रख कर जनविद्या तथा प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत आदि भाषाओं के साहित्य के मूल्यांकन का सम्पूर्ण विद्वज्जगत् को अवसर प्रदान करते रहेंगे । आप सभी को इस दिशा में अभिरुचि और कार्यान्वयन में श्रम के लिए हमारी बधाइयाँ।" (8) डॉ. राजेन्द्रप्रकाश भटनागर, प्राध्यापक - म० मो० मा० राजकीय आयुर्वेद . महाविद्यालय, उदयपुर "पत्रिका की छपाई, सफाई और उत्तम कागज पर मुद्रण देख कर हार्दिक प्रसन्नता हुई । स्वयंभू विशेषांक में अपभ्रश के आदि महाकवि स्वयंभू के सम्बन्ध में विविध आयामों से शोध रचनाएं संकलित कर आपने एक उत्तम कार्य का श्रीगणेश किया है । इसी अनुक्रम में विविध वृत्तिकारों और विद्या की विधाओं पर आप द्वारा समय-समय पर शोधपरक सामग्री के रूप में "जैनविद्या" के आगामी अंक प्रकाशित कर अमूल्य साहित्य का संग्रह हो सकेगा।"
SR No.524752
Book TitleJain Vidya 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1985
Total Pages152
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size14 MB
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