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प्रकाशकीय
"जैनविद्या" पत्रिका का द्वितीय अंक सुप्रसिद्ध पुराण एवं साहित्यकार महाकवि पुष्पदंत के नाम पर प्रकाशित करते हुए हमारा हृदय पुलकित हो रहा है। इससे पूर्व पत्रिका का प्रथम अंक अपभ्रंश के ही ज्ञात महाकवियों में आद्यतम महाकवि स्वयंभू के नाम पर प्रकाशित हुआ था जिस पर पत्रों, विद्वानों, चिन्तकों, भाषाशास्त्रियों आदि की जो प्रशंसापूर्ण सम्मतियां प्राप्त हुई और जिनमें से कुछ को संक्षिप्त रूप में इसी अंक में प्रकाशित किया जा रहा है उनसे हमारे उत्साह में द्विगुणित वृद्धि हुई है।
गद्य और पद्य में निबद्ध वे सब प्रकार की रचनाएं जो सार्वजनीन हित की हों "साहित्य" शब्द से अभिहित की जाती हैं। जैन आचार्यों और विद्वानों द्वारा लिखा गया साहित्य "साहित्य" की इस परिभाषा पर खरा उतरता है। उन्होंने जो कुछ भी लिखा वह या तो "स्वान्तःसुखाय" था अथवा लोककल्याण की भावना से प्रेरित । अलंकार, रस आदि साहित्य के अन्य अंग उनके लिए गौण थे। इसका अर्थ यह नहीं है कि साहित्य के इन अंगों और विधाओं को उन्होंने छुपा ही न हो। प्रसंगोपात्त इनका समावेश जैन रचनाओं में पर्याप्त मात्रा में हुआ है और वह नगण्य अथवा उपेक्षणीय नहीं है।
तीर्थंकरों का कल्याणकारी उपदेश जन-जन तक पहुँच सके इसके लिए उन्होंने उस समय की प्रचलित लोक-भाषा का चयन किया। स्वयं भगवान् महावीर ने तत्कालीन लोकभाषा अर्द्ध-मागधी को जो अपने उपदेशों का माध्यम बनाया उसका एकमात्र कारण यह था कि उनके जनहितकारी उपदेश साधारण से साधारण प्राणी की भी समझ में आ सकें। उनके बाद में होनेवाले जैन रचनाकारों ने इस परम्परा को चालू रखा। यही कारण है कि भारत की प्रायः प्रत्येक लोकभाषा में जैन रचनाकारों द्वारा रचित साहित्य प्रभूत मात्रा में प्राप्त होता है ।