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________________ परम्परा इन्हें सुख देने पर बल देती है, जिसे देवोपासना कहा जाता है, जबकि जैन परम्परा इन्हें दुःख न देने पर बल देती है। वैदिक परम्परा में अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी से मनुष्य का दोहरा सम्बन्ध है, ये मनुष्य से कुछ लेते भी हैं और मनुष्य को कुछ देते भी हैं। इस आधार पर यज्ञ की संस्था विकसित हुई। जैन परम्परा इन्हें दुःख न देने की बात तो करती है किन्तु इनसे कुछ प्राप्त करने की बात नहीं करती। शनैःशनैः जैन परम्परा में भी पद्मावती देवी और भैरों जैसे देवों की उपासना का प्रवेश हो गया किन्तु इन देवी देवताओं को अग्नि, वायु, जल अथवा पृथ्वी का प्रतिनिधि मानना कठिन ही है। ये स्वतन्त्र देवी देवता हैं जैसा कि वैदिक परम्परा में गणेश, शिव आदि स्वतन्त्र देव हैं उन्हें अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी से जोड़ना उचित नहीं है। किन्तु वेद में तो साक्षात् अग्नि, वायु, जल और पृथ्वी ही देवता है। अग्नि, वायु, जल पृथ्वी के सन्दर्भ में वैदिक दृष्टि उसके सामाजिक तथा प्रवृत्तिपरक रूप की परिचायक है। ये तत्त्व अभ्युदयकारी हैं। इन्हें आहुतियाँ देकर पुष्ट भी किया जा सकता है तथा प्रसन्न होकर ये इष्ट फल भी प्रदान करते हैं। इसीलिये ये देव हैं किन्तु इनके प्रति जैन दृष्टि निवृत्ति-प्रधान अहिंसा की सूचक है। इनमें चेतना है, अतः इन्हें कष्ट न पहुँचाया जाये। ये जीवन के निम्नतम स्तर के जीव हैं, अतः इनके प्रति करूणा तो रखी जानी चाहिये किन्तु वैदिक परम्परा में गृहस्थ धर्म प्रधान है और गृहस्थ का काम इन्हें कष्ट दिये बिना चलता नही हैं। अतः आरम्भी हिंसा के प्रायश्चित्त स्वरूप वहाँ पंच महायज्ञों का विधान है। जैन परम्परा संन्यासप्रधान है और वहाँ अहिंसा महाव्रत के अन्तर्गत अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी तथा वनस्पति की भी हिंसा के सर्वथा त्याग का आदर्श रखा गया है। चाहे जैन दृष्टि से देखें, चाहे वैदिक दृष्टि से देखें, अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी, वनस्पति आदि को मानना साधना की दृष्टि से महत्व का है। ये तत्त्व हमें चारों ओर से घेरे हैं। इनकी सजीवता को दृष्टि में रखें तो हमारी क्रिया भावमय हो जायेगी। इन्हें जड़ मानकर चलने पर हमारी क्रिया द्रव्यक्रिया अथवा यान्त्रिक या मैकेनिकल हो जाती है। भावक्रिया सरसता संचार करती है, द्रव्य क्रिया जीवन को नीरस बना देती है। अपने चारों ओर फैली वायु को सजीव मानकर देखें तो वायु का स्पर्श एक पुलक पैदा करता है अन्यथा हमें वायु का स्पर्श अनुभव में भी नहीं आता। जहाँ जल या वनस्पति दिखे, उसके प्रति मैत्री का भाव रखें, जीवन एक काव्य बन जायेगा अन्यथा जीवन एक रूखा सूखा रेगिस्तान है। जैन तीर्थंकर हों या वैदिक ऋषि, इस सहदयता को भाव से देखकर ही वे अग्नि, वायु, जल और पृथ्वी में चेतना के दर्शन कर सके। इस मैत्री भाव के कारण ही प्रकृति तीर्थकरों और वैदिक ऋषियों के लिये इतनी अनुकूलता प्रदान करती रही, जिसका वर्णन पुराणों में तीर्थकरों और ऋषियों के अतिशय के रूप में है। जी-1, पेरेडाइज अपार्टमेण्ट डी-148, दुर्गा मार्ग, बनीपार्क, जयपुर तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2008 - - 69 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524637
Book TitleTulsi Prajna 2008 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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