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आनन्द गाथापति ने भगवान् महावीर स्वामी के सदुपदेश को श्रवण कर दो करण और तीन योग से हिंसा का त्याग किया था।' जो अपने समान दूसरे को भी मानता हुआ उनके साथ दया सहित व्यवहार करता है, अपनी निन्दा एवं गर्हा से युक्त है, महान् आरम्भों का परिहार करता हुआ जो त्रसजीवों के घात को मन, वचन, काय से न स्वयं करता है, न दूसरों से कराता है और न करते हुए पुरुष की अनुमोदना ही करता है, उसका यह पहला अहिंसाणुव्रत होता है।
अहिंसा के अतिचार - अहिंसा के पालन के लिए जितना हिंसा से बचना अनिवार्य है, उतना ही अहिंसा के अतिचारों से भी दूर रहना बतलाया गया है। जैनागम स्थानांगसूत्र में व्रत के खण्डन की चार श्रेणियां बतलाई गई हैं वे इस प्रकार हैं -
अतिक्रम - व्रत में स्खलना का मन में चिन्तन करना। व्यतिक्रम - व्रत को खण्डित करने से साधन जुटाना। अतिचार - व्रत का आंशिक रूप से खण्डन करना। अनाचार - व्रत का खण्डन करना।
अनभिज्ञतावश व्रतों में कहीं स्खलना हो जाती है, तो उसे अतिचार कहा जाता है। उपासकदशांगसूत्र में स्थूल प्राणातिपातविरमरणव्रत के जिन अतिचारों को गिनाया गया है, वे इस प्रकार हैं - बन्ध, वध, छविच्छूद, अतिभार और भत्तपानविच्छेद। समणसुत्तं में भी पांच अतिचारों का ही नामोल्लेख आया है।'' 2. सत्याणुव्रत या स्थूल मृषावाद विरमणव्रत
श्रावक का दूसरा व्रत स्थूल मृषावाद विरमण व्रत है। सुधर्मा स्वामी के शब्दों में सत्य अनवद्य और पाप रहित वचन है। रत्नकरण्ड श्रावकाचार में आचार्य समन्तभद्र सत्याणुव्रत के विषय में कहते हैं कि जो लोक विरुद्ध, राजविरुद्ध एवं धर्मविरुद्ध स्थूल असत्य न स्वयं बोलता है, न दूसरों से बुलवाता है, साथ ही दूसरों की विपत्ति के लिए कारणभूत सत्य को न स्वयं कहता है, न दूसरों से कहलवाता है, वह सत्याणुव्रती है। मृषावाद से बचने का जो स्थूलव्रत है, वह स्थूलमृषावाद विरमणव्रत कहलाता है।'
श्रावक प्रतिक्रमण में श्रावक के द्वादशव्रतों के ग्रहण में द्वितीय स्थूल मृषावाद के पांच भेद किए हैं। वे हैं - कन्या के लिए, गो आदि पशु के लिए, भूमि के लिए, धरोहर के लिए और कूट साक्षी (झूठी गवाही) के लिए।
स्थूल मृषावाद विरमणव्रत के अतिचार- गृहस्थ श्रावक में रहते हुए कभी स्वार्थवश, कभी द्वेषवश और कभी व्यापार के निमित्त श्रावक के द्वारा जो कथंचित असत्य व्यवहार हो जाता है, वही अतिचार है। अतिचार पांच प्रकार के हैं -
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तुलसी प्रज्ञा अंक 140
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