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धर्म, दर्शन, कला, शिल्प और वाणिज्य का स्वरूप क्या था ? परिवार में लोग कैसे रहते थे? उस युग की आर्थिक और राजनैतिक स्थिति क्या थी ? इन सब दृष्टियों से मीमांसा की जाए तो प्रस्तुत ग्रन्थ एक समृद्ध सामग्री प्रदान करता है।
किसी भी देश की सभ्यता और संस्कृति का इतिहास तात्कालीन जीवन मूल्यों के इतिहास से अभिन्न होता है। प्रस्तुत आगम के कथानक तात्कालीन जीवन मूल्यों पर विशद प्रकाश डालते हैं। प्रस्तुत आलेख में उस युग की संस्कृति, सभ्यता व जीवन मूल्यों से जुड़े कुछ पहलुओं पर विचार किया जा रहा है। परिवारः जीवन की प्रथम प्रयोगशाला
समाज की सबसे छोटी इकाई व जीवन की पहली प्रयोगशाला है - परिवार। भारतीय समाज में प्रारंभ से ही कुटुम्ब व्यवस्था का प्रचलन रहा है। एक कुटुम्ब में अनेक लोग एक साथ रहते। एक दूसरे के सुख-दुख में संभागी बनते।
परिवार रूपी संस्था का प्रारंभ पति-पत्नि से होता है। लेकिन जब तक घर में शिशु की किलकारी नहीं गूंजती, परिवार अधूरा रहता है। भद्रा सेठानी के जब तक सन्तान नहीं होती, उसे अपना आंगन सूना लगता है, जीवन निरर्थक प्रतीत होता है। जब पुत्र की प्राप्ति होती है, उसका मातृत्व साकार हो उठता है। ज्ञातधर्मकथा में स्थान-स्थान पर पुत्र-जन्मोत्सव का उल्लेख मिलता है।
___ प्राचीन भारतीय इतिहास बताता है कि बच्चा जब गर्भ में आता, माता की चर्या बदल जाती। उसका खान-पान संयत, हितकर और पथ्यकर होता। वह अति चिन्ता, भय, शोक, मोह
आदि नकारात्मक भावों से मुक्त रहने का प्रयास करती। प्रस्तुत ग्रंथ में निरूपित धारिणी का गर्भचर्या पद इसका सुन्दर दिग्दर्शन है।'
वंश परम्परा को आगे बढ़ाने में पुत्र की अहम भूमिका होती है, इसलिए पुत्र जन्म का प्रसंग विशेष उल्लास का प्रतीक बनता था। राजा के पुत्रोत्पत्ति होने पर पूरे राज्य में खुशियां मनाई जाती। पुत्र जन्म की सूचना देने वाली परिचारिका को राजा की ओर से विशेष उपहार दिया जाता और उसे दासत्व के चिन्ह से भी मुक्त कर दिया जाता। कभी कभी तो उसके पुत्र-पौत्र परम्परा तक की आजीविका की व्यवस्था भी कर दी जाती थी। नामकरण और शिक्षा व्यवस्था
जन्म के दस अथवा बारह दिन पश्चात् शिशु का नामकरण संस्कार संपन्न होता। प्राचीन समय में नामकरण के साथ एक उद्देश्य होता था। उस समय प्रायः सार्थक नाम दिए जाने की
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तुलसी प्रज्ञा अंक 140
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