________________
नायाधम्मकहाओ में भारतीय संस्कृतिः एक विमर्श
अध्यात्म के आधारभूत ग्रंथ आगम कहलाते हैं। यथार्थ के द्रष्टा व प्ररूपक ऋषियों की वाणी जिस सत्य को व्यक्त करती है, वही आगम बन जाता है। आगम साहित्य में जहां दर्शन और तत्व की गहन गुत्थियों को सुलझाया गया है, वही सरस और सुबोध कथानकों के माध्यम से भी सत्य के साक्षात्कार का पथ दिखाया गया है।
साध्वी मुदितयशा
जैन आगमों की श्रृंखला में एक आगम है- 'नायाधम्मकहाओ'। यह एक कथानक प्रधान आगम है। कालक्रम की दृष्टि से विचार करें तो इस आगम के कथानकों से संबद्ध व्यक्तियों का काल अलग-अलग है। उन्हें किसी निश्चित कालसीमा में आबद्ध नहीं किया जा सकता। उदाहरण के लिए प्रस्तुत आगम का प्रथम अध्ययन 'उत्क्षिप्त' ज्ञात राजा श्रेणिक के पुत्र मेघकुमार से संबंधित है। राजा श्रेणिक का समय ई. पू. 586 से 535 माना गया है। '
इसी ग्रंथ का एक महत्वपूर्ण व सर्वाधिक विस्तृत अध्ययन है - 'अवरकंका' । यह अध्ययन अर्हत् अरिष्टनेमि तथा वासुदेव श्रीकृष्ण आदि से संबद्ध है। इनका समय विद्वानों ने लगभग ई.पू. 1443 माना है।' तीर्थंकर मल्लि का जीवनवृत्त उससे भी अति प्राचीन है। इन सारे तथ्यों का समाकलन करने के बाद यही कहना होगा कि प्रस्तुत आगम की कथाओं से संबंधित व्यक्ति अलग अलग काल से संबद्ध हैं। इनका कोई एक नियत कालखंड नहीं है। संभावना की जा सकती है कि आगम संकलन एवं लेखन के समय कथा प्रधान होने से इन सबका एक ग्रंथ में समावेश कर दिया गया है। इस सबके बावजूद इतना निःसन्देह कहा जा सकता है कि प्रस्तुत ग्रंथ में निबद्ध सभी कथानक प्राचीन भारतीय संस्कृति व समाज व्यवस्था का सुन्दर चित्र प्रस्तुत करते है ।
उस युग की परम्पराएं क्या थी ? लोगों का रहन-सहन, खान-पान और वेशभूषा कैसी थी? ऐसे कौनसे रीतिरिवाज थे जो समाज की प्रगति में सहायक थें ? क्या ऐसे भी रिवाज प्रचलित थे जिन्हें सामाजिक दृष्टि से वांछनीय नहीं कहा जा सकता?
तुलसी प्रज्ञा जुलाई-सितम्बर, 2008
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
71
www.jainelibrary.org