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रचनाकालः- रसवक्त्रग्रहाधीशवत्सरे मासि माधवे ।
काव्ये काव्यप्रकाशस्य संकेतोऽयं समर्थितः ॥ 10 ॥
विक्रम संवत् 1266 के माधव (वैशाख) मास में शुक्रवार को काव्यप्रकाश का यह संकेत नामक व्याख्यान सम्पन्न हुआ । यहाँ - रस = 6, वक्त्र = 6, ग्रहाधीश (आदित्य) = 12, इस प्रकार संख्या लेकर 'अयानां वामतो गतिः' के अनुसार विक्रम संवत् 1266 का समय आता है। विद्वानों द्वारा माणिक्यचन्द्र के संकेत की रचना का यही समय मान्य है।
यहाँ कुछ विद्वान् वक्त्र शब्द से '1' संख्या का कुछ '2' संख्या का तथा कुछ '4' संख्या का संकेत मानकर 'सकेत' का रचनाकाल क्रमशः 1216, 1224 व 1246, विक्रम संवत् मानते हैं। परन्तु डा० भोगीलाल सांडेसरा ने वक्त्र शब्द से '6' संख्या का संकेत मानकर 'संकेत' का रचनाकाल 1266 विक्रम संवत् निश्चित किया है। माणिक्यचन्द्र के महामात्य वस्तुपाल का सम्पर्की होने से यही मत युक्तिसंगत है। इस मत की पुष्टि में दूसरा प्रमाण यह भी है कि. आचार्य माणिक्यचन्द्र सूरि द्वारा रचित पार्श्वनाथचरितम् की प्रशस्ति में काव्यरचना1276 विक्रम संवत् दिया है
रसर्षिरविसंख्यायां सभायां दीपपर्वणि । समर्थितमिदं वेलाकूले श्रीदेवकूपके।।
रस = 6, ऋषि = 7, रवि (आदित्य) = 12, = 1276 विक्रम संवत् । इससे स्पष्ट है कि 1276 विक्रम संवत् में पार्श्वनाथचरितम् की रचना करने वाले आचार्य माणिक्यचन्द्र द्वारा 'संकेत' की रचना इससे 10 वर्ष पूर्व 1266 वि. में करना ही युक्तिसंगत प्रतीत होता है, न कि 1216, 1224 या 1246 में।
इसके पश्चात् आगे लिखे दो श्लोक मिलते हैं। ये श्लोक ग्रन्थकार के न होकर लिपिकर के हैं, अनवधान से सम्पादकों ने इन्हें ग्रन्थ के साथ लिख दिया है। इस प्रकार का उल्लेख प्रायः सभी लेखक = प्रतिलिपि करने वाले ग्रन्थ के अन्त में करते थे । अतः हमने इन्हें लिपिकर द्वारा लिखा होने से मूलग्रन्थ से अलग माना है। प्राच्यविद्या संशोधनालय मैसूर द्वारा प्रकाशित 'काव्यप्रकाश-संकेत' के द्वितीय सम्पुट के अन्त में इन दो श्लोकों के बारे में सम्पादक ने यह पादटिप्पणी दी है- 'अदृष्टे' त्यारभ्य 'भवतु लोकः' इत्यन्तंगे पुस्तके नास्ति । इससे भी स्पष्ट है कि यह अंश मूल पुस्तक का न होकर लिपिकर द्वारा जोड़ा गया है। इस पर भी उक्त संस्करण में सम्पादक ने इन दो श्लोकों को मूलग्रन्थ के साथ ही प्रकाशित किया है। हमने तो वस्तुस्थिति को ध्यान में रखते हुए इन्हें- 'लिपिकरस्य निवेदना' के रूप में मूलग्रन्थ से अलग माना है।
लिपिकरस्य निवेदना
अदृष्टदोषात् स्मृतिविभ्रमाच्च यदर्थहीनं लिखितं मयाऽत्र । तत्सर्वमार्यैः परिशोधनीयं प्रायेण मुह्यन्ति हि ये लिखन्ति ॥
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तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-जून, 2008
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