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________________ गुरुपरम्परा-वर्णनम् - श्रीशीलभद्रसूरीणां पट्टे माणिक्यसन्निभाः। परमज्योतिषो जाताः भरतेश्वरसूरयः॥1॥ शीलभद्रसूरि के पद पर माणिक्य तुल्य परम ज्योतिष्मान् श्री भरतेश्वर सूरि उत्तराधिकारी बने थे। भरतेन परित्यक्तोऽस्मीति कोपं वहन्निव। शान्तो रसस्तदधिकं भेजे श्रीभरतेश्वरम्।।2।। नाट्यशास्त्रकार भरतमुनि ने मुझे छोड़ दिया, मानो इसी कारण कुपित हुए शान्त रस ने श्री भरतेश्वर को अत्यधिक रूप से सेवित किया अर्थात् वे अतीव शमप्रधान विरक्त मुनि थे। काव्य में तो 9 रस होते हैं, परन्तु- ‘अष्टौ नाट्ये रसाः स्मृताः'' के अनुसार नाट्य में शृंगारादि आठ रस ही होते हैं, नवाँ शान्त रस नहीं होता है, इस मन्तव्य को आधार बनाकर संकेतकार ने यह उत्प्रेक्षा की है। पदं तदन्वलञ्चक्रे वेरस्वामिमुनीश्वरः । अनुप्रद्योतनोद्योतं दिवमिन्दुमरीचिवत्।।3।। तदनन्तर वेरस्वामी (वीरस्वामी) ने उनके पट्ट को वैसे ही अलंकृत किया जैसे प्रद्योतन (सूर्य) के उद्योतन (प्रकाश) के बाद आकाश को चन्द्रकिरणें अलंकृत करती हैं। वाञ्छन् सिद्धवर्धू हसन् सितरुचिं कात्या रति रोदयन्, पञ्चेषोर्मथनाद् दहन् भववनं क्रामन् कषायद्विषः। त्रस्यन् रागमलाद् घनाघनशकृद्भस्त्रास्त्यजन् योषितः, बिभ्राणः शममद्भुतं नवरसी यस्तुल्यमस्फोरयत्।।4।। सिद्धि रूपी वधू को चाहते हुए, सितरुचि (चन्द्रमा) का उपहास करते हुए, काम का विनाश करने से भववन (जन्म-मरण रूप वन) का दहन करते हुए, कषाय रूपी शत्रुओं को लांघते हुए (परास्त करते हुए), रागमल से भयभीत होते हुए, स्त्रियों को भारी भरकम पुरीष (मल) की भस्त्रा (बोरी) के समान परित्याग करते हुए अद्भुत शमभाव को धारण करते हुए जिसने नौ रसों को समान रूप से प्रकट किया था। षट्तर्कीललनाविलासवसतिः स्फूर्जत्तपोऽहर्पतिः तत्पट्टोदयचन्द्रमाः समजनि श्रीनेमिचन्द्रप्रभुः। निस्सामान्यगुणैः भुवि प्रसमरैः प्रालेयशैलोज्ज्वलैः यश्चक्रे कणभोजिनो मुनिपतेर्व्यर्थं मतं सर्वतः॥5॥ - तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-जून, 2008 - 89 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524635
Book TitleTulsi Prajna 2008 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages100
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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