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यत्रैता लहरीचलाचलदृशो व्यापारयन्ति ध्रुवं, यत्तत्रैव पतन्ति सन्ततममी मर्मस्पृशो मार्गणाः। तच्चक्रीकृतचापमञ्चितशरप्रेखत्करः क्रोधनो, धावत्यग्रत एव शासनधरः सत्यं सदासौ स्मरः ।।
इस उदाहरण पर संकेतकार कहते हैं कि-योति कान्ते। एताः कामिन्यः। अत्र कामिनीरूपो धर्मी, 5व्यापारद्वारेण बाणपातःसाधनम्। स्मरस्याग्रगत्वं साध्यम्। अलंकारान्तररहितं साधनं निर्दिष्टम् । क्वचिदलंकारान्तरगर्भितत्वेन हेतुर्निर्दिश्यते। स्वं यथा
यथा पंकजिनीपत्रे पदौघः(?) प्रगुणीकृतः। तथा मन्ये वियोगिन्यः स्मरभिल्लेन घातिताः।(पृ0 270)
जैसे ही कमलिनीपत्र पर पदौघ= पदसमूह को बढ़ाना आरम्भ किया, उससे लगता है कि वियोगिनियाँ कामरूपी व्याध के द्वारा घायल कर दी गईं। इस श्लोक के पूर्वार्द्ध का अन्वय व भाव भी पूर्णतया स्पष्ट नहीं हो पाया है। (दशमोल्लासान्ते)
गुणानपेक्षिणी यस्मिन् अर्थालंकारतत्परा। प्रौढाऽपि जायते बुद्धिः संकेतः सोऽयम (पृ0 610-611)
जिस संकेत में प्रौढबुद्धि भी गुणों की अपेक्षा न करने वाली तथा अर्थालंकारों में तत्पर हो जाती है, वह संकेत अद्भुत है। दशम उल्लास की समाप्ति पर माणिक्यचन्द्र सूरि ‘संकेत' की सार्थकता व महत्ता बता रहे हैंदशमोल्लासान्ते ग्रन्थप्रशस्तिः - 'नानाग्रन्थसमुद्धतैरसकलैरप्येष संसूचितः
संकेतोऽर्थलवैर्लविष्यति नृणां शये विशयं तमः।' निष्पन्ना ननु जीर्णशीर्णवसनैर्नीरन्ध्रविच्छित्तिभिः
प्रालेयप्रथितां न मन्थति कथं कन्था व्यथां सर्वथा। नाना ग्रन्थों से समुद्धृत असकल अर्थलेशों से ही संसूचित यह संकेत लगता है निस्सन्देहरूप से लोगों के तम (अज्ञान) को नष्ट करेगा। जीर्ण-शीर्ण वस्त्रों के सघनता से जोड़े टुकड़ों द्वारा निष्पन्न कन्था (गुदड़ी) क्या शीत से होने वाली व्यथा को नष्ट नहीं करती है ?
इसके आगे 9 श्लोकों में संकेतकार अपनी गुरुपरम्परा का वर्णन करते हैं। ये श्लोक पूर्वनिर्दिष्ट आनन्दाश्रम ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित संस्करण में नहीं हैं। इन्हें प्राच्यविद्या संशोधनालय मैसूर विश्वविद्यालय से प्रकाशित द्वितीय संस्करण के द्वितीय सम्पुट से लिया गया है10, जो 1977 ई. में प्रकाशित हुआ था।
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तुलसी प्रज्ञा अंक 139
तुलसा प्रशा
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