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________________ नवमोल्लासारम्भे- लोकोत्तरोऽयं सयेतः कोऽपि कोविदसत्तमाः। शब्दस्याडम्बरो यत्र भूषणत्वेन निश्चितः॥ (पृ0 199) हे उत्तम विद्वानों ! यह संकेत भी लोकोत्तर ही है, जिसमें शब्द का आडम्बर भी भूषणरूप बन गया है। एक अन्य सुन्दर पद्य संकेतकार ने पूज्यानामिदम्' कहकर लाटानुप्रास के उदाहरण के रूप में उद्धृत किया है। लगता है यह उनके गुरुजी का पद्य है न्यायशालिनि भूपाले संग्रही नावसीदति। विपरीते पुनस्तत्र संग्रही नाऽवसीदति। (पृ0 203) न्यायशाली राजा के राज्य में संग्रही (धनसंग्रह) करने वाला व्यक्ति दुःखी नहीं होता, क्योंकि चोरी-डाका न होने से उसका संगृहीत धन सुरक्षित रहता है। अतः उसके सामने विषाद का अवसर नहीं होता। इससे विपरीत न्यायशाली राजा के अभाव में संग्रही जन विषण्ण हो जाता है, क्योंकि अन्यायपूर्ण व्यवस्था में बलवान् उसका धन हड़प लेते हैं। यहाँ द्वितीय व चतुर्थ चरण समान हैं। लाटानुप्रास में पदों की असकृत् आवृत्ति के उदाहरण के रूप में संकेतकार अपना एक पद्य इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं सन्ति सन्तः किं न सन्ति सन्ति चेत्तनिवेद्यताम्। किं कुप्यन्ति न कुप्यन्ति ते कुप्यन्ति किमीदृशाः॥ (पृ0 203) क्या सन्तजन हैं या नहीं हैं, यदि हैं तो उन्हें पूछिए, क्या वे कुपित होते हैं अथवा नहीं ? यदि कुपित होते हैं तो ऐसा क्या कोप हुआ? एक पद की असकृत् आवृत्ति वाले लाटानुप्रास का अपना उदाहरण संकेतकार ने निम्न रूप में प्रस्तुत किया है दुःखाभावः सुखं नेह सुखं यत्तन्न वा सुखम्। सुखं तत्परमार्थेन यद्विहाय सुखं सुखम् ।। (पृ0 203) दुःख का अभाव सुख नहीं है, जो सुख दिख रहा है वह भी सुख नहीं है, वही सुख वास्तविक है, जिसको छोड़कर सुख वस्तुतः सुख बन जाता है। एक नामपद (प्रातिपदिक) की सकृत् व असकृत् आवृत्ति वाले लाटानुप्रास का स्वरचित उदाहरण संकेतकार इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं विश्वसृष्टिकरो विश्वपालको विश्वघातकः। विश्वज्ञो विश्वविख्यातो देवदेवः पुनातु वः ।। (पृ0 204) विश्व की रचना, पालना व संहार करने वाला विश्वज्ञ विश्वविख्यात देवाधिदेव तुम्हें पवित्र करे। यमक के प्रसङ्घ में संकेतकार का कथन है- 'तथा गत्यौष्ठ्यौष्ठ्यवकारबकारादिवर्ण 84 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 139 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524635
Book TitleTulsi Prajna 2008 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages100
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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