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________________ इष्टिकोण चेतना की निर्मलता के लिए खतरा बना हुआ है। एक लालसा भीतर ही भीतर पनप ही है कि प्रिय वस्तु का संयोग हो, उसका वियोग न हो। ___ इस विसंगति को समझना आवश्यक है। परिग्रह से ऐन्द्रिक सुख मिलता है। यह सुख आत्मा का सहज सुख नहीं है। न इस सुख का स्वयं भोगना अहिंसा है, न किसी दूसरे को ऐसा सुख भोगने में सहायता देना अहिंसा है। यह तात्विक स्थिति है किन्तु अधिकतर व्यक्ति ऐन्द्रिक मुख में ही रमण करते हैं, अतः उन्हें वे सुख अनुकूल प्रतीत होते हैं और दूसरों को भी ऐसा सुख उपलब्ध कराना वे पुण्य का कार्य समझते हैं। गारमार्थिक अहिंसा- वस्तुतः हिंसा आत्मा के अपने निर्मल स्वरूप को वैभाविक सुखों की पूर्छा से आवृत्त करने में है। तब दूसरों को ऐसे सुख उपलब्ध कराना भी हिंसा ही हुई। यह बात हमारी सामान्य मान्यता के विरुद्ध होने के कारण सरलता से हृदयंगम नहीं हो पाती किन्तु तर्क की कसौटी पर यही बात खरी उतरती है। आचार्य भिक्षु ने जब यह कटु सत्य प्रकट किया तो उनका तीव्र विरोध हुआ। इस विषय में थोड़ा और विस्तार में जाना होगा। परिग्रह और हिंसा का अविनाभाव सम्बन्ध है। परिग्रह और हिंसा दोनों परस्पर जुड़े हुए है। परिग्रह के लिए हिंसा होती है और हिंसा के लिए परिग्रह होता है। ये दोनों एक ही वस्त्र के दो छोर हैं। 12 'आदमी हिंसा किसलिए करता है? शरीर के लिए, परिवार के लिए, भूमि, धन और सत्ता के लिए, ये सब परिग्रह हैं। कोई अहिंसा करना चाहे और अपरिग्रह करना न चाहे, यह कभी संभव नहीं।13 'कैसी हो इक्कीसवीं शताब्दी पुस्तक में आचार्य महाप्रज्ञ कहते हैं कि बहुत सारे व्यक्ति अहिंसक बनना भी चाहते हैं पर वे जीवनक्रम को बदलते नहीं, इसलिए वे अहिंसक नहीं बन पाते। हिंसा की कमी परिग्रह की कमी पर निर्भर है।14 शरीर का धर्म- हम केवल आत्मा नहीं हैं. अपितु आत्मा और शरीर का संगम हैं, आत्मा को परिग्रह नहीं चाहिये लेकिन शरीर को रोटी, कपड़ा, मकान और औषधि, ये सब चाहिये। ऐसे में क्या हम परिग्रह अथवा हिंसा से सर्वथा बच सकते हैं? ___जीव जीव का भोजन है - जीवो जीवस्य भोजनम्। भोजन जीवन की प्रथम आवश्यकता है। ऐसे में भोजन के लिए हिंसा की अपरिहार्यता स्पष्ट है तथापि हम भोजन छोड़ नहीं सकते। किन्तु क्या इस भोजन के लिए किये जाने वाली हिंसा को अहिंसा मान लिया जायेगा? क्या हमें यह अधिकार है कि हम अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए दूसरे का अस्तित्व समाप्त कर दें? यदि हम ऐसा मानेंगे तो हमें दूसरों को भी यह अधिकार देना होगा कि वे अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए हमारा अस्तित्व समाप्त कर दें। तब निर्धनता के कारण भूख से मरने वाले व्यक्ति को यह अधिकार देना होगा कि वह बलपूर्वक धनी का धन छीन ले ताकि अपनी भूख मिटा सके। विचार करें तो पता चलेगा कि ऐसे अधिकार की स्वीकृति का अर्थ होगा - जंगल का राज। तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-जून, 2008 - 63 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524635
Book TitleTulsi Prajna 2008 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages100
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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