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________________ संक्षुब्ध हो जाते हैं। अत्यधिक गर्मी में घूमने से पित्त का प्रकोप हो जाता है।12 उन्माद से भी पित्त बढ़ जाता है। कफ की प्रबलता से श्वास रोग हो जाता है। अजीर्ण, वमन, चर्म रोग, व्रण रोग, ऊर्ध्ववात, विसूचिका, हैजा आदि रोग भी मुख्यतः त्रिदोष के कारण पैदा होते हैं ।14 भाष्य में शारीरिक रोग का मुख्य हेतु वातादि की विषम अवस्था माना है। इनकी साम्यावस्था आरोग्य का हेतु है। आयुर्वेद में भी कहा है- वातादि की वृद्धि या क्षय से शरीर रुग्ण हो जाता है। शारीरिक रोग की चिकित्सा के संदर्भ में भाष्यकार ने कहा है-वायुजनित विकार को दूर करने के लिए शरीर पर तैल मर्दन, घृत पान आदि उपचार किया जाता है। रोगी को करीषमय शय्या पर सुलाया जाता है। पित्त के निमित्त से होने वाले उन्माद में शर्करा, क्षीर आदि का प्रयोग कर शांत किया जाता है। सर्पदंश का विष दूर करने के लिए विद्या, मंत्र आदि का सहारा लिया जाता है। अन्य रोगों की चिकित्सा के लिए भी विद्या आदि का प्रयोग किया जाता है, जैसे 1. आदर्श विद्या-कांच में संक्रान्त रोगी के प्रतिबिम्ब पर जप करना। 2. वस्त्र विद्या-मंत्र से वस्त्र को मंत्रित कर रोगी को उससे प्रावृत्त करना। 3. चापेटी विद्या-दूसरे के चपेटा मारकर रोगी को स्वस्थ करना। 4. व्यजन विद्या-पंखे को अभिमंत्रित कर उससे रोगी पर पवन करना। इस प्रकार शारीरिक रोग व चिकित्सा के बारे में व्यवहार भाष्य में गाथा 2019 से 2030 व 2430-2441 तक औषध व वैद्य के बारे में विस्तार से दिशा निर्देश दिया है। अयोग्य वैद्य को यमद्त कहा है। इसी संदर्भ में आचार्य के लिए कहा है कि जो राजा सेना, वाहन, कोश तथा बुद्धि से हीन होता है, वह राज्य की रक्षा नहीं कर पाता। ठीक उसी प्रकार जो आचार्य सूत्र, अर्थ और औषध से हीन होता है, वह गच्छ की रक्षा नहीं कर सकता।'' वैद्यकशास्त्रों के पारगामी वैद्य रोगी को समाधिस्थ कर देते हैं, नीरोग कर देते हैं। वैद्य कौन श्रेष्ठ, चिकित्सा के लिए औषध कैसे प्राप्त हो, रोगी की असाध्य, साध्य रोग में कैसे सेवा करनी व नीरोग होने पर रोगी स्वावलम्बी कैसे बने, रोग के लक्षण व रोग को शमित करने का उपाय भाष्यकार ने सुन्दर व सटीक किया है जो संवेदनशून्य बनते जा रहे चिकित्सा जगत का मार्गदर्शक कर सकता है। मानसिक चिकित्सा आचारांगसूत्र में भगवान् महावीर ने कहा है-'अणेग चित्ते खलु अयं पुरिसे' यह पुरुष अनेक चित्त वाला है। चित्त की मुख्यतः दो अवस्थाएँ हैं-समाधिस्थ एवं असमाधिस्था इन्हें स्वस्थ चित्त व अस्वस्थ चित्त भी कहा जा सकता है। मनोविज्ञान में इन्हें सामान्य एवं असामान्य चित्त कहा जा सकता है। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2008 - 37 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524634
Book TitleTulsi Prajna 2008 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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