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आधुनिक भाषा में चिकित्सा सूत्र भी कहा जा सकता है। प्रायश्चित्त निर्धारक ग्रंथ होने पर भी इसमें प्रसंगवश राजनीति शास्त्र, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, चिकित्सा शास्त्र व मनोविज्ञानशास्त्र का भी विवेचन है।
व्यवहारसूत्र पर पांचवीं, छट्ठीं शताब्दी में संघदास गणि ने व्यवहार भाष्य लिखा। जिसमें विधि निषेध पूर्वक एक ओर जहां आत्मा के कल्याणकारी मार्ग का उपदेश दिया है, वहां दूसरी
ओर शरीर, मन व भाव विशुद्धि का विवेचन भी किया है। शरीर, मन व भावों की विशुद्धि के बिना आत्मसाक्षात्कार का स्वप्न साकार नहीं हो सकता। शारीरिक दौर्बल्य, मानसिक विक्षेप
और भावों की विकृति आत्मा के कल्याणकारी पथ में अवरोध पैदा कर देती है। भाष्यकार ने तथ्यों को प्रस्तुत करने के लिए दृष्टांत, कथानक आदि का प्रयोग भी बहुलता से किया है।
प्रस्तुत सूत्र के अध्ययन से ज्ञात होता है कि इसमें समग्र चिकित्सा पद्धति का निदर्शन है। भाष्यकार ने चिकित्सा का विधि-अपवाद सहित निर्धारण कर, नीतिपरक व मनोवैज्ञानिक ढंग से प्रतिपादन किया है। व्यवहार भाष्य में निर्दिष्ट रोगी के प्रति उदारदृष्टिकोण, सकारात्मक चिन्तन व समीचीन व्यवस्था पक्ष चिकित्सा जगत के लिए आदर्श है। शारीरिक रोग, रोग का कारण व निदान का सुव्यवस्थित वर्णन भाष्य में है। मनोविक्षिप्त अवस्था का, उसके हेतुओं का और शोधन का सुन्दर विश्लेषण भी भाष्य में प्राप्त होता है। भाष्य में मन को स्वस्थ करने के व्यावहारिक प्रयोग मनोचिकित्सकों के लिए उपादेय है। आलोचना सूत्र का सम्पूर्ण विस्तार भाव विशुद्धि की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। चिकित्सक की अर्हता का उल्लेख भी प्रस्तुत ग्रंथ में उपलब्ध होता है।
अम्मापितीहि जणियस्स, तस्स आतंकपउरदोसेहि।
वेज्जा देंति समाधिं, जहिं कता आगमा होति।' शारीरिक रोग व चिकित्सा
व्यवहार भाष्य के अनुसार रोग का मूल कारण है-वात, पित्त व कफ का असंतुलन।10 व्यवहार भाष्य में कहा है-बद्धासन (एक आसन में लम्बे समय तक बैठना) से वात, पित्त और कफ संक्षुब्ध हो जाते हैं। विश्रामणा-विश्राम करने से संतुलित हो जाते हैं। इनके संतुलन से बल बढ़ता है, दृढ़ता बढ़ती है, अर्श-बवासीर आदि रोग नहीं होते। अष्टांग संग्रह में भी कहा है। वातादि दोष निमित्त पाकर विकृत हो जाते हैं, यथा निमित्त पाकर जल में तरंग, बुलबुले आदि पैदा होते हैं।
भाष्य में वात, पित्त प्रकोप के अनेक कारणों का उल्लेख हैं-शारीरिक अति श्रम करने से, अधिक भ्रमण करने से, अधिक भार उठाने से व भार लेकर विषम मार्ग में घूमने से वातादि
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तुलसी प्रज्ञा अंक 138
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