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________________ 16. संसारचक्र एतस्मिन् जन्तुरज्ञानमोहितः। भ्राम्यन् सुखं च दुःखं च, भुंक्ते सर्वत्र सर्वदा , भागवत- 6/17/18 17. स्थूलानि सूक्ष्माणि बहूनि चैव, रूपाणि देही स्वगुणैर्वृणोति। ___क्रियागुणैरात्मगुणैश्च ,श्वेताश्वतरोप. 5/12 18. जहा य तिन्नि मूलं धेतूण निग्गया। एगोत्थ लहई लाहं एगो मूलेण आगओ।। एगो मूलं पि हारित्ता आगओ तत्थ वाणिओ। ववहारे उवमा एसा एवं धम्मे वियाणह।। माणुसत्तं भवे मूलं लाभो देवगई भवे। मूलच्छेएण जीवाणं नरगतिरिक्खत्तणं धुवं। दुहओ गई बालस्स आवई वहमूलिया। देवत्तं माणुसत्तं च जं जिए लोलयासढे।।। तओ जिए सई होइ दुविहं दोग्गइं गए। दुल्लहा तस्स उम्मज्जा अद्धाए सुइरादवि। उत्तराध्ययन- 7/14-18। 19. उत्तराध्ययन- 7/11-13 20. उत्तराध्ययन- 14/47, सूत्रकृतांग- 1/12/14 21. जमाहु ओहं सलिलं अपारगं जाणाहि णं भवगहणं दुमोक्खं। जंसी विसण्णा विसयंगणाहिं दुहत्तो वि लोकं अणुसंचरंति, सूत्रकृतांग- 1/12/14/ जम्मणमरणपुणब्भ-वमणंतभवसायरे भीमे, मूलाचार- 7/5 सुट्ट असारे संसारे दुक्खसायरे घोरे। किं कत्थ वि अत्थि सुहं वियारमाणं सुणिच्चयदो। स्वामी कार्तिकेय द्वादशानुप्रेक्षा, 62, उत्तराध्ययन- 19/16 22. द्र. राजवार्तिक- 9/7, सर्वार्थसिद्धि- 2/10, आदि। 23. स्वामी कार्तिकेय द्वादशानुप्रेक्षा, 68 24. (क) यथाकारी यथाचारी तथा भवति, साधुकारी साधुर्भवति, पापकारी पापो भवति, पुण्यः पुण्येन कर्मणा भवति पाप: पापेन, बृहदारण्यकोपनिषद् 4/4/5, कठोपनिषद् 2/5/7, (ख) पावेहि पेच्चा गच्छेइ दोग्गति,इसिभासिय, 33/6, उत्तराध्ययन- 4/3, 13/24, 33/ 1, 10/15, एवं भवसंसारे संसरइ सुहासुहेहि कम्मेहिं। जीवो पमादबहुल, सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला भवंति। दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णफला भवंति,औपपातिक, 56, द्र. सूत्रकृतांग- 1/2 (3) 18, 1/2 (1)4, 1/7/11 28 - तुलसी प्रज्ञा अंक 138 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524634
Book TitleTulsi Prajna 2008 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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