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________________ 40 कुछ स्थलों में 'क्रिया' शब्द 'जीवाजीवादि पदार्थ - ज्ञान एवं छन्द, अलंकार आदि के वाचक रूप में भी प्रयुक्त हुआ है। " समस्त कलाओं (पुरुषों की 72 कलाओं, स्त्रियों की 64 कलाओं) तथा काव्य- कला आदि का भी यह शब्द वाचक है और 'क्रियाविशाल' नामक 'पूर्व' में इनका निरूपण था - ऐसी मान्यता है। 41 जैन दर्शन और अर्थ क्रिया 'अर्थक्रिया' एक दार्शनिक पारिभाषिक शब्द है। इसके सम्बन्ध में भी जैन दार्शनिकों ने सूक्ष्म व मौलिक विचारणा प्रस्तुत की है जिसका सार यहां प्रस्तुत करना प्रासंगिक होगा। सामान्यतः 'क्रिया' को चेष्टा का पर्याय माना जाता है- आत्मजन्या भवेदिच्छा, इच्छाजन्या भवेत् कृतिः। कृतिजन्या भवेत् चेष्टा, क्रिया सैव निगद्यते ।। तात्पर्य यह है कि मन में उठने वाले मानसिक भाव इच्छा-कृति - चेष्टा- इस क्रम में क्रिया का रूप धारण करते हैं। कृति का अर्थ है करने का संकल्प या चेष्टा का प्रारम्भ पर यह तो हुई चेतन पदार्थ की बात। अचेतन पदार्थ में भी चेतन की चेष्टा या क्रिया से कुछ परिणतियां सम्भव होती हैं, जिन्हें प्रयत्नजनित पदार्थ क्रिया कहा जाता है। स्थूल रूप से अर्थक्रिया का अर्थ है- व्यावहारिक उपयोगिता की दृष्टि से पदार्थ का क्रियान्वित होना । चेतन व्यक्तियों का सक्रिय होकर व्यवहार में किसी न किसी के लिए उपयोगी बनना सर्वविदित है। भौतिक पदार्थों में भी अर्थक्रिया द्वारा उपयोगी होने की प्रक्रिया को प्रतिदिन अनुभव किया जाता है। जैसे, मिट्टी से घड़े का निर्माण करते हैं, घड़े से पानी लाने व भरने आदि का काम लेते हैं। रूई से धागों का निर्माण कर धागों को वस्त्र का आकार देते हैं और वस्त्र को पहनने-ओढ़ने एवं शीत-निवारण आदि के काम में लेते हैं। सोने से विविध आभूषण बनाते हैं और उन्हें विभिन्न अंगों पर धारण करते हैं। आचार्य हेमचन्द्र के शब्दों में पदार्थ का विविध परिणतियों के माध्यम से क्रियान्वित होना अथवा अर्थक्रिया उपयुक्त होना उसकी 'अर्थक्रिया' है- 'अर्थक्रिया अर्थस्य हानोपादानलक्षणस्य क्रियाः निष्पत्ति: । Jain Education International - जैन दर्शन में स्वत: या किसी अन्य के निमित्त से होने वाली परिणति - जो एक देश से दूसरे देश में स्थानान्तरित होने में कारण होती है-, 'क्रिया' मानी गई है। +2 यह क्रिया जीव व पुद्गलों में होती है, अतः ये दोनों ही 'सक्रिय' माने गए हैं। 43 जैन दार्शनिकों के मत में 'अर्थ' से तात्पर्य 'कार्य' पदार्थ से है, उसमें होने वाली क्रिया अर्थात् कार्य के रूप में होने वाली निष्पत्ति-रूप क्रिया 'अर्थक्रिया' है। इसके अतिरिक्त, आत्मा का जो चैतन्य धर्म या स्वभाव है- जो मन-वचन-काय की चेष्टा के रूप में अभिव्यक्त होता है - वह भी क्रिया रूप में स्वीकारा गया है। 4 पुण्य-पाप कर्मों के निमित्त से प्रादुर्भूत सुख-दुःखादि की अनुभूति- -यह चेतन जीव की अर्थक्रिया है। 45 44 तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2008 For Private & Personal Use Only 21 www.jainelibrary.org
SR No.524634
Book TitleTulsi Prajna 2008 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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