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________________ जैन साहित्य में 'क्रिया' का बहुआयामी रूप सर्वप्रथम यह निर्देश करना उचित है कि 'क्रियावाद' भारतीय आस्तिक विचारधारा का एक विशेष मानदण्ड है। 'क्रियावाद' का समर्थक आत्मा, परलोक, कर्मवाद व पुनर्जन्म आदि का समर्थक होगा ही। भगवान् महावीर के समय में अनेक मत-मतान्तरों में क्रियावादी (180 भेद), अक्रियावादी (84 भेद), उच्छेदवाद आदि मत प्रसिद्ध थे। क्रियावाद व अक्रियावाद का निरूपण धवला, गोम्मटसार आदि ग्रन्थों में प्राप्त होता है। 34 (सम्यक्) क्रियावाद इन सब में जैन मान्यता अधिक अनुकूल था ( बशर्ते वह ज्ञानवाद आदि से अविरुद्ध हो ) । क्रिया से कर्ता (आत्मा) के अस्तित्व की पुष्टि आध्यात्मिक मार्ग पर चलने के लिए एक पृष्ठभूमि तैयार करती है।” अत: (ज्ञानावादादि - सापेक्ष) 'क्रियावाद' जैन दार्शनिक विचारधारा में पूर्णत: उपादेय रहा है। 36 भगवान् महावीर के जैन संघ में 'क्रिया' को केन्द्र बिन्दु रखकर अनेक महत्त्वपूर्ण मतभेद भी सामने आए। उनमें एक था जमाली-निरूपित बहुरतवाद जो भगवान् महावीर के 'क्रियमाण कृत' के विरुद्ध या आक्षेप रूप था । ' ' क्रियमाणकृत' के अनुसार जो किया जा रहा है, उसे किया हुआ माना जाता है अर्थात् कार्य प्रारम्भ हो जाने पर, भले ही वह कार्य पूर्णता को, सम्पन्नता को प्राप्त न भी हुआ हो, चूंकि वह आंशिकरूप से हो चुका है, होता जा रहा (क्रियमाण) है, वह 'कृत' कहा जाता है। यह निरूपण 'निश्चय नय' या ऋजुसूत्रनय के अनुसार माना जाता है। इस नय में क्रियाकाल व निष्ठाकाल अभिन्न होते हैं। इसी तरह अजितकेशकम्बली द्वारा प्रवर्तित 'उच्छेदवाद' के अनुसार दान आदि सत्क्रियाएं निष्फल, निस्सार हैं, क्योंकि मृत्यु के बाद सब उच्छिन्न हो जाता है। इसी संदर्भ में अश्वमित्र का 'सामुच्छेदिकवाद' भी उल्लेखनीय है, जिसके अनुसार उत्पत्ति - क्रिया के तुरन्त बाद वस्तु नष्ट हो जाती है। आचार्य पूरणकाश्यप के अक्रियावाद के अनुसार किसी भी क्रिया से कर्मबन्ध आदि नहीं होता। इसी क्रम में आचार्य गंग का 'क्रियावाद' था जो भगवान महावीर के 'एक समय में एक ही उपयोग परिणति-क्रिया' की मान्यता के विपरीत था । जैन दर्शन में नयवाद, अनेकान्तवाद व स्याद्वाद को विशिष्ट स्थान प्राप्त है- यह दर्शन का विद्यार्थी जानता है। इन नयों में ज्ञाननय व क्रियानय का विशिष्ट निरूपण प्राप्त होता है। समयसार र, आचार्य अमृतचन्द्र ने एकान्त ज्ञाननय व एकान्त क्रियानय का निराकरण कर इन दोनों की परस्पर अपेक्षा या मैत्री स्थापित कर ज्ञान व क्रिया- दोनों को महत्त्व देते हुए साधना करने की प्रेरणा दी है।” इसी संदर्भ में क्रियारुचि (सम्यक्त्व) का निर्देश भी प्रासंगिक है। ज्ञान, चारित्र, तप, विनय, समिति - गुप्ति के पालन में जिसकी भावपूर्वक रुचि हो, वह 'क्रियारुचि' है। 38 नयों में 'एवंभूत नय' के अनुसार समस्त वस्तु 'क्रियात्मक' है। " 39 20 Jain Education International For Private & Personal Use Only तुलसी प्रज्ञा अंक 138 www.jainelibrary.org
SR No.524634
Book TitleTulsi Prajna 2008 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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