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________________ संसार-चक्र की दुरन्तता व दुस्तरता को इंगित करने के लिए जैन परम्परा में संसार - परिवर्तन को पांच प्रकारों में वर्गीकृत कर समझाया गया है। ये पांच प्रकार हैं- द्रव्यपरिवर्तन, क्षेत्र परिवर्तन, काल-परिवर्तन, भाव-परिवर्तन और भव- परिवर्तन | 22 इन परिवर्तनों के निरूपण से यह स्पष्ट होता है कि संसार का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं बचा है जहां प्रत्येक जीव ने जन्म न लिया हो, 23 ऐसा कोई भौतिक कर्म-परमाणु नहीं है जिसे उसने कर्मरूप में परिणत नहीं किया हो। कहने का सार यह है कि हम अनन्त बार जन्मे और मरे हैं । इस निरन्तर संसार - परिभ्रमण का कारण हमारी अपनी 'क्रिया' है और कोई नहीं । - प्राय: सभी आस्तिक अध्यात्म दर्शनों का निष्कर्ष यह है कि इस संसार में सुख - दुःखदायी सुगति-दुर्गतियों में जीव द्वारा की गई क्रियाएं- किये गये शुभाशुभ कर्म ही कारण हैं, 24 कर्मों की शुभाशुभता के पीछे जीव का अज्ञान - मिथ्यात्व हेतु है, 25 इस संसरण - क्रियाचक्र से छूटने का उपाय 'निष्कर्म' होना है और निष्कर्मता (अक्रियता) की स्थिति के लिए पुण्य-पाप- इन दोनों प्रकार के कर्मों का क्षय अपेक्षित है। 26 इस संसार चक्र से अस्पृष्ट कोई है तो वह परमात्म-तत्त्व ही है जो परम ज्ञानादिक्रिया-सम्पन्न होते हुए भी निष्फल, निष्क्रिय है और इस समस्त संसार का साक्षी ( ज्ञाता - द्रष्टा ) है | 27 - भारतीय दर्शनों में क्रिया-सम्बन्धी विविध निरूपण सभी दर्शनों में, चाहे वे आस्तिक दर्शन हों या नास्तिक 'क्रिया' का निरूपण हुआ ही है। चार्वाक जैसे नास्तिक दर्शन में भी 'खाओ, पीओ, मौज करो' की क्रिया का उपदेश दिया गया है। शेष भारतीय दर्शनों में, जो पुनर्जन्म, परलोक आदि का अस्तित्व मानते हैं, आचारमीमांसा के संदर्भ में परम पुरुषार्थ 'मोक्ष' की प्राप्ति में 'क्रिया' की उपयोगिता को स्पष्ट रूप से व्याख्यायित किया गया है। कुछ दर्शन मोक्ष प्राप्ति में 'ज्ञान' (आत्मज्ञान, पदार्थज्ञान, आत्म-अनात्मविवेक आदि) को कारण मानते हैं, वे भी चित्त शुद्धि हेतु 'क्रिया' (नित्य अनुष्ठेय धार्मिक क्रिया आदि) की उपयोगिता स्वीकारते हैं। 28 - वेदान्त, न्यायवैशेषिक, पूर्वमीमांसा आदि दर्शनों ने 'नित्य क्रिया' की मोक्ष में परम्परया उपयोगिता स्वीकार की है। मंडन मिश्र ( सुरेश्वराचार्य) आदि प्राचीन वेदान्ती व मीमांसक दार्शनिक ‘ज्ञान-कर्मसमुच्चय' (ज्ञान व कर्म की सहप्रधानता) का समर्थन करते हैं तो आचार्य शंकर इसका पूर्णतः निराकरण करते हैं। उनके मत में मोक्ष 'क्रियानिष्पाद्य' नहीं है। 29 आचार्य भर्तृप्रपंच आदि भेदाभेदवादी वेदान्ती 'कर्म - ज्ञानसमुच्चय' का समर्थन करते हैं। योगदर्शन में तो 'क्रियायोग' को मोक्ष-‍ - साधक (समाधि - भावना में तथा क्लेशकृशता में सहायक) माना गया है। इस क्रियायोग में तप, स्वाध्याय व ईश्वरप्रणिधान (इष्ट देव - ध्यानादि) तुलसी प्रज्ञा अंक 138 18 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524634
Book TitleTulsi Prajna 2008 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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