________________
सुख-शांति का अनुभव नहीं हो पाता। संसार के इस स्वरूप को महर्षि वेदव्यास ने भागवत में एक सुन्दर दृष्टान्त के माध्यम से समझाया है.
-
यथा वस्तूनि पण्यानि हेमादीनि ततस्ततः । पर्यटन्ति नरेष्वेवं जीवो योनिषु कर्तृषु ।।
-
अर्थात् जैसे किसी व्यापारिक मण्डी में - जहां सोने-चाँदी से लेकर सामान्य जीवनोपयोगी वस्तुओं का थोक या खुदरा व्यापार होता हो- बेचे जाने वाली या खरीदे जाने वाली वस्तुएं इधर से उधर लाई - ले जाई जाती रहती हैं, वैसे ही जीव विविध योनियों में यहां से वहां निरन्तर भ्रमण कर रहे हैं या कराये जा रहे हैं। बाजार में निरन्तर हलचल, भागदौड़, गमनागमन से एक अशांततनावपूर्ण वातावरण रहता है। व्यापारिक प्रतिस्पर्धा में विक्रेता व्यापारी अपनी वस्तु को अधिकाधिक लाभ में बेचना चाहते हैं तो खरीददार अधिकाधिक सस्ते दामों में अच्छी से अच्छी वस्तु, वह भी जांच-परख कर खरीदना चाहता है। सर्वत्र तनाव रहता है, भीड़ में सबसे जल्दी अपना काम पूरा करने की भागदौड़ रहती है, असन्तोष, लोभ तथा प्रतिस्पर्धात्मक मानसिक व्यग्रता रहती है। इसी तरह इस संसार में प्रत्येक व्यक्ति कामभोगों को अधिकाधिक खरीदने - हस्तगत करने की प्रतिस्पर्धा में तनावग्रस्त व अशांत सक्रिय जीवन जी रहा है, विश्रान्तिशांति कभी नहीं प्राप्त करता है।
जैन परम्परा में भी इस जीव-लोक को व्यापारी दृष्टि से वर्णित करते हुए कहा गया है कि इन जीवों में तीन तरह के व्यापारी हैं। एक तो वे जो किसी तरह मूल पूंजी बचा पाते हैं और दूसरे वे जो अपनी मूलपूंजी बचाते हुए अधिकाधिक लाभ कमाते हैं, तीसरे वे जो लाभ तो क्या, अपनी मूल पूंजी भी गवां देते हैं। लाभ कमाने वाले जीव वे हैं जो मनुष्य भव प्राप्त कर देवगति का लाभ पाने में सफल होते हैं। जो मनुष्य भव प्राप्त कर मनुष्य योनि में जाने का कर्म - उपार्जित करते हैं, वे मूलधन सुरक्षित रख पाने वाले व्यापारी जैसे हैं। किन्तु जो मनुष्य भव प्राप्त करके भी नीचपापक्रियाओं- कर्मभोगों में लिप्त रह कर नरक-तिर्यंच आदि दुर्गति पाने वाले हैं, वे उन व्यापारियों की तरह परम दुःखी हैं जो व्यापार में अपनी मूलपूंजी भी गंवा बैठते हैं।" ऐसे लोग उन जुआरियों जैसे हैं जो दाव में काकिणी (कौडी की वस्तु) के लिए हजार सोने की मुहर हार जाते हैं। " कामभोग-सम्बन्धी भागदौड़, पारस्परिक ईर्ष्या उनके विनाश का कारण बनती है। जैसे गीध पक्षियों पर और गरुड़ सर्पों पर टूट पड़ता है और उन्हें मार डालता है, वैसे ही कामभोग-सम्बन्धी मनोभाव जीव को दुर्गतिरूप संसार में ढकेल कर उसकी विनाश यात्रा का मार्ग प्रशस्त करते हैं। 20 इसी चिन्तन के परिप्रेक्ष्य में इस संसार को दुःखस्थली और 'अनन्त दुःख सागर' की तरह दुस्तरणीय बताया गया है। 21
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2008
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
17
www.jainelibrary.org