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जिज्ञासा सामने आई कि द्रव्यात्मको लोकः क्या कभी ऐसा भी हो सकता है कि इस सूत्र में कुछ और जोड़ा जाये यानि सूत्र को और दूसरी तरह से प्रस्तुत किया जाये ?
समाधान में कहा जा सकता है कि कोई नई बात सामने आये तो जोड़ने में कठिनाई नहीं है। अस्तित्व जो पांच बतलाये गये हैं, इतने व्यापक हैं कि पुद्गल और जीव दोनों में बहुत सारों का समावेश हो जाता है। अब कोई स्वतन्त्र आये तो अलग बात है। जन्म कुंडली में नौ ग्रहों को मानते थे। अब नेपच्यून को और मान लिया। और सामने आयेंगे तो और ग्रहों को मान लेंगे। समावेश सबमें हो जाता है तो फिर नया कैसे माने?
एक जिज्ञासा सामने आई कि विज्ञान ने स्पेस के बारे में आइन्स्टीन के बाद एक नई स्वीकृति दी, यह माना जाता है। संतति के बारे में ऐसा तो नहीं है लेकिन क्या ऐसा कोई संभव हो सकता है?
कोई बात आयेगी तभी समाधान की भाषा में सोचा जा सकता है। पहले सोचने का विषय नहीं है। टाइम और स्पेस तो अलग नहीं है, यह तो मात्र योग की बात है। टाइम भी माना जाता था और स्पेस भी। दोनों सिद्ध थे। वह तो विज्ञान की प्रक्रिया में समीकरण में आये।
जिज्ञासा की गई कि पदार्थ वही है, जिसमें गतिशीलता है, तो क्या अधर्मास्तिकाय के कार्य में भी गतिशीलता है ? तो इसे जानने के लिए यह समझना होगा कि गतिशीलता दो तरह की होती है एक गतिशीलता वो है, जिसको क्रिया कहते हैं। क्रिया की दृष्टि से इनको निष्क्रिय बतलाया गया है। इनमें वह गति नहीं है, इसलिए इनको निष्क्रिय माना है। एक गति होती है देशान्तर गति और एक गति होती है स्वभावगत गति। अधर्मास्तिकाय निरन्तर स्वभाव में चलता रहता है। परिस्पंदन भीतर का होता रहता है, बाहर का नहीं होता। वह गतिशीलता सबमें है।
"आदमी दिन में जागता है, रात में नींद लेता है, जागरण और नींद के साथ दिन-रात का सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। जागरण प्रत्येक क्षेत्र में लाभदायक माना गया है। जागरूक रहना सफलता के लिए अनिवार्य है। अध्यात्म में जागरण का विशेष अर्थ है- शब्द चेतना में होना और नींद का अर्थ है- अशुब्द चेतना में होना। जो व्यक्ति अशुब्द चेतना में जीता है, वह नींद में होता है, जो व्यक्ति शुब्द चेतना में जीता है, वह जागरण की अवस्था में होता है।"
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2008
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