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________________ और रोबोट में चेतना का अन्तर है पर वैसे वह भी उत्पन्न हुआ है, एक पर्याय है। रोबोट पुद्मल का पर्याय है और मनुष्य जीव और पुद्गल दोनों का मिश्रित पर्याय । कोई भी मनुष्य मूल द्रव्य नहीं है, सबके सब पर्याय हैं। जैसे कपड़ा एक पर्याय है, वैसे आदमी भी एक पर्याय है पर एक मिश्रण से बना हुआ है। रोबोट, मकान आदि-आदि पदार्थ केवल पौद्गलिक हैं। सारी सृष्टि में जीव और पुद्गल अथवा कहीं पुद्गल और कहीं कोरा जीव - ये विविध रूपों में बदलते रहते हैं, विविध रूप उनके सामने आते रहते हैं। उनकी विविधता और विविध रूपों में होने वाले परिणमन नाम है सृष्टि | सृष्टि का निर्माता और कोई प्रतीत नहीं होता । स्वयं द्रव्य ही अपने को आविर्भूत करता है, प्रकट करता है तो सृष्टि बन जाती है। पर्याय सामने आते हैं, सृष्टिं बनती है। पर्याय जब विलीन होते हैं तो सृष्टि का विलय हो जाता है। अगर आप जगत् को बिल्कुल सीमित कर दें, सब पर्यायों को छोड़ दें तो दुनिया छोटी-सी हो जायेगी। कोरा द्रव्य रह जायेगा, विस्तार नहीं होगा । आप विस्तार करें तो वहां द्रव्य विलीन हो जायेगा । यह द्रव्यात्मक, पर्यायात्मक जगत् है । कहीं द्रव्य गौण है और पर्याय मुख्य, कहीं पर्याय गौण है और द्रव्य मुख्य । विस्तार का नाम है - सृष्टि और सीमा में रहने का नाम है - विश्व । विश्व और सृष्टि का जो स्वरूप है, हम उसे एक दृष्टि से देख सकते हैं और वह हमारी दृष्टि उत्पाद, व्म और ध्रौव्य - तीनों से संयुक्त दृष्टि है। हम इन आँखों से उसे देख नहीं पाते किन्तु अन्तश्चक्षु के द्वारा हम अशाश्वत के भीतर विद्यमान शाश्वत को भी देखते हैं। वह शाश्वत और अशाश्वत दोनों का योग जगत् और सृष्टि की व्याख्या कर सकता है। जिज्ञासा सामने आई कि गम्यत्व का सिद्धान्त एक बहुत बड़ी समस्या है, क्योंकि गम्यत्व के सामने कुछ भी बोलना असंभव-सा हो जाता है। एक ईश्वरवादी का कर्त्तव्य है, ईश्वर कर्ता हर्ता है | यह अहेतुगम्य सिद्धान्त है, इसे चुपचाप स्वीकार कर लो। एक आदमी कहता है कि आत्मा इस जीवन के बाद नहीं रहेगी। इसे भी अहेतुगम्यता के आधार पर चुपचाप स्वीकार कर लो। क्या वहां मौन हो जाएँ ? तर्क करें या ना करें ? समाधान की भाषा में कहा जा सकता है कि ईश्वर को अमूर्त मान लें तो वहाँ हेतु कोई नहीं, पर किस आधार पर मानें। उसको आधार चाहिए। वह कहेगा कि न्याय दर्शन में ऐसा माना है। हम कहेंगे - न्याय दर्शन मानता है, यह ठीक है पर जैन दर्शन नहीं मानता। कोई आधार तो प्रस्तुत करेगा। वह किस आधार पर मानेगा ? हम तर्क नहीं करेंगे पर उसका आधार तो समझेंगे। क्या वह दिखाई देता है, प्रत्यक्ष है ? कहेगा- प्रत्यक्ष तो नहीं। फिर किस आधार पर मानते हो? आखिर अंतिम निर्णय होगा शास्त्र के आधार पर । भिक्षु स्वामी ने कहा था- हमने श्वेताम्बर आगमों के आधार पर दीक्षा ली है। शास्त्र की बात वहीं टल जायेगी। हम न्यायशास्त्र को प्रमाण नहीं मानते हैं । 12 Jain Education International For Private & Personal Use Only तुलसी प्रज्ञा अंक 138 www.jainelibrary.org
SR No.524634
Book TitleTulsi Prajna 2008 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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