SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपरिग्रह एवं उसका लोकोपकारी स्वरूप . - सुमत जैन आज विश्व भौतिक दृष्टि से उन्नति के पथ पर प्रगति करते हुए भी अवनति की ओर जा रहा है। चारों ओर त्राहि-त्राहि मची है, नित्य बढ़ती हुई आवश्यकताओं की पूर्ति के योग्य पर्याप्त सामग्री के अभाव में असंतोष बढ़ रहा है। आज मनुष्य एक-दूसरे की ओर संशय और भय की दृष्टि से देख रहा है। एक व्यक्ति दूसरे की सम्पत्ति हड़पने के लिए अवसर की तलाश में है। जीवन और मृत्यु के झूले में झूल रहा है। आज जीवन भार बन चुका है। ऐसी दयनीय अवस्था पूरे विश्व में व्याप्त है। इस अवस्था से छुटकारा पाने का उपाय केवल अपरिग्रह है। अपरिग्रह का अर्थ- अपरिग्रह शब्द में लगा हुआ 'अ' नञ् समास बोधक है एवं वह 'परि' उपसर्ग पूर्वक 'ग्रह' धातु से बनता है।' ग्रह का अर्थ है- ग्रहण करना एवं परि का अर्थ है- चारों ओर अर्थात् चारों ओर से ग्रहण करना परिग्रह कहलाता है लेकिन 'अ' नञ् समास बोधक होने से नकारात्मक है, अतः हम कह सकते हैं कि जहां कुछ ग्रहण नहीं करना हो वह अपरिग्रह है। अपरिग्रह शब्द का अर्थ यह भी है कि जिसके पास कोई समान न हो एवं न नौकर चाकर हो। जो पुण्यात्मा इसको अपने आचरण में लाता है, उत्साह से पालता है वही अपरिग्रही होता है। अपरिग्रह का विलोम परिग्रह है। परिग्रह के अर्थ को समझकर ही उसका त्याग करके अपरिग्रह को अपना सकते हैं, अतः परिग्रह का स्वरूप जानना अपेक्षित है। परिग्रह को परिभाषित करते हुए आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थ सूत्र में एक सूत्र दिया है- "मूर्छा परिग्रहों" अर्थात् मूर्छा परिग्रह है। प्रश्न उठता हैमूर्छा क्या है? पर द्रव्य में ममत्त्व बुद्धि का नाम मूर्छा है। जो जीव बाह्य संयोग विद्यमान न होने पर भी ऐसा संकल्प करता है कि यह मेरा है वह परिग्रह सहित है। मूर्छा के सम्बन्ध में यह भी कहा है- गाय, भैंस, मणि, मोती आदि चेतन-अचेतन बाह्य उपाधि तथा आभ्यन्तर उपाधि का संरक्षण, अर्जन और संस्कार आदि रूप व्यापार ही मूर्छा है। मूर्छा तु ममत्व परिणाम:' ममत्व परिणाम ही मूर्छा है। 72 _ तुलसी प्रज्ञा अंक 132-133 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524628
Book TitleTulsi Prajna 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy