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आघात हमारे चिन्तन को उससे भी अधिक गहरा तब लगता है जब हमें यह कहा जाता है कि कोई छड़ कितनी लंबी है अथवा किन्हीं दो घटनाओं के बीच में कितना समय बीता-यह इस बात पर निर्भर करता है कि उस लम्बाई व समय को देखने वाला व्यक्ति कितनी तीव्र अथवा मंद गति से चल रहा है। हमारे मन में यह धारणा बद्धमूल है कि एक मीटर लम्बी छड़ हर परिस्थिति में एक मीटर ही लम्बी रहेगी और हमारी घड़ी की सुई के द्वारा दिखाया गया एक सेकेण्ड सदा एक सेकण्ड ही रहेगा। किन्तु सापेक्षता के सिद्धान्त ने हमें बताया कि हमारी यह धारणा सत्य नहीं है।
देखना यह है कि इस निष्कर्ष पर वैज्ञानिक कैसे पहुंचे और देशकाल की अवधारणा के परिवर्तन से हमारे चिन्तन में कितना बड़ा क्रान्तिकारी परिवर्तन आने की संभावना बन गयी। ज्यों-ज्यों हम सापेक्षता के सिद्धान्त की गहराई में जायेंगे त्यों-त्यों यह बात स्पष्ट होती दिखायी देगी कि इस खोज में हमारे पूरे चिन्तन को बदल देने की क्षमता अन्तर्निहित है। जैन-सम्मत सापेक्षता
देश और काल पर प्रायः सभी भारतीय दर्शनों में विचार हुआ है किन्तु देश और काल संबंधी अवधारणा को सापेक्षता से जोड़कर जितना चिन्तन जैन परम्परा में हुआ उतना शायद किसी दूसरी परम्परा में नहीं हुआ। जैन परम्परा वस्तुवादी है और बहुत्ववादी है। जड़ के क्षेत्र में पुद्गल के अनन्तानत परमाणु हैं और वे एक-दूसरे से अलग-अलग है। इसी प्रकर चेतना के क्षेत्र में अनन्तान्त जीव भी एक-दूसरे से पृथक्-पृथक् अपना अस्तित्व रखते हैं। जैन चिन्तन के अनुसार एक का दूसरे से यह पृथक्त्व चार दृष्टियों से बनता हैद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । प्रत्येक पदार्थ अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव अर्थात् स्वचतुष्ट्य की अपेक्षा है किन्तु पर चतुष्ट्य की अपेक्षा नहीं है। इसी को एक अपेक्षा से होना-स्याद् अस्ति और दूसरी अपेक्षा से न होना-स्यान् नास्ति कहा जाता है। इसी आधार पर एक पदार्थ को दूसरे पदार्थ से पृथक् किया जाता है।
सापेक्षता का एक दूसरा पक्ष यह है कि पदार्थ में अनन्त धर्म रहते हैं जिसमें जब हम किसी एक धर्म को बताते हैं तो शेष धर्मों को गौण कर देते हैं जिसका यह अर्छ नहीं समझना चाहिए कि शेष धर्म हैं ही नहीं, यह केवल हमारी भाषा की सीमा है कि हम युगपद् सभी धर्मों को नहीं कह सकते, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि उन धर्मों का अस्तित्व भी नहीं है। जब हम यह कहते हैं कि यह वस्त्र काला है तो हमारे इस वक्तव्य की कुछ सीमाएं हैं। प्रथम सीमा तो यह है कि हम इस वाक्य के द्वारा केवल वस्त्र का रूप बता रहे हैं किन्तु हमें यह पता है कि वस्त्र का रस, गंध और स्पर्श भी है। दूसरी सीमा यह है कि
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- तुलसी प्रज्ञा अंक 132-133
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