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________________ सापेक्षता और अनेकांत : विज्ञान और दर्शन मानव जाति के इतिहास में जो क्रांन्तियां हुईं उनेक अनेक स्रोत हैं। महावीर, बुद्ध और ईसा धर्म के माध्यम से वैचारिक क्रान्ति लाये । कालमार्क्स आर्थिक और राजनैतिक मंच से क्रान्ति लाये। बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में एक क्रान्ति विज्ञान के माध्यम से आयी । 1605 ई. में अल्बर्ट आईन्सटीन ने सापेक्षता के लिस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया उसने हमारी देश-काल संबंधी अवधारणाओं में ऐसे आमूलचूल परिवर्तन किये जिससे दार्शनिक चिन्तन भी अछूता नहीं रह सकता। Encyclopedia Britenica के अनुसार 18 वीं शताब्दी तक साथ-साथ चलने वाले दर्शन और विज्ञान 16 वीं शताब्दी में अलग-अलग हो गये थे किन्तु सापेक्षता के सिद्धान्त ने उन्हें बीसवीं शताब्दी में परस्पर जोड़ दिया । देश-काल - युति दर्शन के अध्येताओं से बात छिपी नहीं है कि देश और काल की अवधारणाएं हमारी चिन्तन प्रणाली के मूल में रहती हैं और इसलिए यदि हमारी देशकाल संबंधी अवधारणायें बदल जाये तो हमें अपने पूरे चिन्तन को बदलना पड़ सकता है। सापेक्षता के सिद्धान्त ने यही किया । जैसा कि आईन्स्टीन के गणित के अध्यापक Heemann Minowski ने कहा है-सापेक्षता सिद्धान्त के बाद अपने आप में देश और काल केवल एक छाया मात्र हर गये हैं । जो आज अस्तित्व में है - वह इन दोनों समन्वित रूप है। • प्रोफेसर दयानन्द भार्गव - पदार्थ की लम्बाई और काल- दोनों सापेक्ष है हमें देश और काल को अलग-अलग रूप में देखने का दीर्घकालिक अभ्यास है। इसलिए कहा जाता है कि देश और काल की सत्ता पृथक्-पृथक् नहीं है, बल्कि समन्वित है-तो यह बात हमारे सिर के ऊपर से गुजर जाती है । दूसरा तुलसी प्रज्ञा जुलाई - दिसम्बर, 2006 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524628
Book TitleTulsi Prajna 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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