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' जैसे कोई कोढ़ी मनुष्य अपने रोग के लिए रसायन के समान ईख को पाकर उसे जलाकर नष्ट करता है वैसे ही भोग के लिए निदान करके मूर्ख मुनि सर्व दुःख और व्याधियों का विनाश करने में तत्पर मुनिपद को नष्ट करता है।
'मोक्ष के अभिलाषी मुनिगण "मैं मरकर पुरुष होऊं" या "मेरे वज्रऋषभनाराच संहनन आदि हो", इस प्रकार का भी निदान नहीं करते, क्योंकि पुरुष आदि पर्याय भवरूप है और भवपर्याय का परिवर्तन स्वरूप होने से संसार भवमय है अर्थात् नाना भवधारण करने रूप ही तो संसार है।
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क्या प्रार्थना नहीं करें ? क्या कुछ भी नहीं मांगे ?
कहीं भ्रम न हो जाये, अतः इसी क्रम में आचार्य यह भी बताते हैं कि किस प्रकार की प्रार्थना करनी चाहिए
'हमारे शारीरिक, आगन्तुक और स्वाभाविक दुःखों का नाश हो तथा उनके कारणभूत कर्मों का क्षय हो । रत्नत्रय पालन करते हुए मरण हो और जिनदीक्षा की ओर अभिमुख करने वाले ज्ञान का लाभ हो, इतनी ही प्रार्थना करने योग्य है। इसके सिवाय अन्य प्रार्थना करना योग्य नहीं है। 1
जिनेन्द्र वर्णी के अनुसार उक्त प्रार्थना भी प्रशस्त निदान का ही एक रूप है । उनके शब्दों में- ये मोक्ष के कारणभूत प्रशस्त निदान हैं। इसी तरह की भावना निम्नांकित शब्दों द्वारा व्यक्त करने की परम्परा है
"दुक्ख-खओ कम्म-र - खओ, समाहिमरणं च बोहि - लाहो य । मम होउ जगद्- बांधव तव जिणवर चरण सरणेण ॥"
हे जिनवर ! आपके चरणों की शरण से मेरे दुःखों का क्षय हो, कर्मों का क्षय हो, समाधिमरण हो, ज्ञान की प्राप्ति हो और जगत मेरा बाधंव हो, किसी के प्रति क्रोध या घृणा न हो ।
निदान के अनुसार फल मिलता है ?
प्रथमानुयोग में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जहाँ इस बात की पुष्टि होती है कि कई जीवों को निदान के अनुसार फल मिला है। सबसे बड़ा उदाहरण तो यह है कि त्रेसठ शलाका पुरुषों (24 तीर्थंकर + 9 बलभद्र + 9 नारायण + 9 प्रतिनारायण + 12 चक्रवर्ति) में से नारायण बनने वाले प्राणी नारायण के पद हेतु निदान किए होते हैं यानि नारायण का पद नारायण बनने के निदान-बंध का फल होता है। 13
तुलसी प्रज्ञा जुलाई - दिसम्बर, 2006
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