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________________ एक समय में समय नैरन्तर्य स्त्री पुरुष 10 20 10 32 सिद्ध 8 समय तक 48 सिद्ध 7 समय तक 60 सिद्ध 6 समय तक 72 सिद्ध 5 समय तक 82 सिद्ध 4 समय तक 96 सिद्ध 3 समय तक 108 सिद्ध 1 समय तक नन्दी चूर्ण के इस विवरण का आधार बृहत्संग्रहिणी (गाथा 333) है? उत्तराध्ययन सूत्र में लिंग (शरीर रचना व नेपथ्य) अवगाहना (सिद्धावस्था से पूर्व के शरीर की लम्बाई) तथा सिद्ध क्षेत्र की अपेक्षा अनेक सिद्ध का नियम इस प्रकार हैनपुंसक 108 गृहिलिंग अन्यलिंग स्वलिंग 108 उत्कृष्टअवगाहना जघन्य अवगाहना मध्यम अवगाहना 108 ऊर्ध्वलोक समुद्र अन्य जलाशय नीचालोक तिर्यक लोक ___4 2 3 20 108 पूर्व अवस्था की अपेक्षा से उत्तराध्ययनसूत्र में ये चौदह भेद भी उपलब्ध होते हैं। तत्त्वार्थसूत्र में इनके अतिरिक्त काल, गति, चारित्र, ज्ञान आदि अनुयोगद्वारों के आधार पर अन्य भेद भी निष्पन्न हो जाते हैं। सिद्ध होने के बाद सब जीव समान हो जाते हैं, फिर उसके अनेक भेदों का प्रतिपादन क्यों? प्रतीत होता है कि यह जैन-दर्शन की व्यापकता का सर्वोत्कृष्ट सूत्र है। मुक्ति पर किसी जाति, वर्ण, लिंग, सम्प्रदाय का एकाधिकार नहीं। श्रमण संघ में दीक्षित हो या नहीं, विभिन्न चामत्कारिक शक्तियों में संवलित अर्हत् हो या सामान्य रूप से जीवन जीने वाला, स्त्री हो या पुरुष, श्रमण, तापस या गृहस्थ वेश हो, प्रत्येक अवस्था में जीव पुरुषार्थ के द्वारा सर्वोच्च अवस्था को प्राप्त कर सकता है। आन्तरिक योग्यता को मुख्यता देने वाला यह सूत्र अनेकान्त का प्रवर प्रतिष्ठापक है। 2 तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2006 - 045 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524628
Book TitleTulsi Prajna 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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