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________________ स्त्रीलिंगसिद्ध के प्रसंग में लिंग शब्द का द्वितीय अर्थ विवक्षित है जबकि स्वलिंग, अन्यलिंग तथा गृहलिंग के प्रसंग में उसका नेपथ्य अर्थ विवक्षित है। वेद (कामविकार) मुक्ति में बाधक है, अतः उसके सद्भाव में सिद्धि नहीं हो सकती। जीव विज्ञान में शरीर रचना का नियामक है- गुणसूत्र । जैन दर्शन के अनुसार उसके हेतु हैं- शरीर नामकर्म का उदय एवं वेद का उदय । नामकर्म कुम्भकार के समान सब प्रकार की शरीर रचना में समर्थ होने पर भी वेद के अनुसार ही स्त्री-पुरुष आदि का निर्माण करता है जैसे कुम्भकार सामयिक मांग के अनुसार घट, क्लश, दीपक आदि का निर्माण करता है। १. पुरुषलिंगसिद्ध- पुरुष रूप में मुक्त होने वाले पुरुषलिंग कहलाते हैं। 10. नपुसंकलिंगसिद्ध- नपुंसक चारित्र का अधिकारी नहीं होता तब वह मुक्त कैसे हो सकता है? अभयदेवसूरि के अनुसार यहां नपुंसक का अर्थ पुरुष नपुंसक या कृतनपुंसक है। किसी कारण विशेष से नपुंसकत्व को प्राप्त व्यक्ति मुक्त होता है वह नपुंसकलिंग सिद्ध है। सिद्धसेनगणि ने लिंग और वेद को एकार्थक माना है, अत: उनके अनुसार ये तीनों भेद पूर्वभाव प्रज्ञापनीय (द्रव्यार्थिक नय) के अनुसार हैं। 11. स्वलिंगसिद्ध- जो जैन श्रमणवेश- रजोहरण, मुखवस्त्रिका आदि को धारण कर मुक्त होता है वह स्वलिंग सिद्ध कहलाता है। वस्तुतः यह द्रव्यलिंग है। भावलिंग हैअनगारत्व। 12. अन्यलिंगसिद्ध- तापस, परिव्राजक आदि अन्य श्रमणों के वेश में मुक्त होने वाला अन्यलिंग सिद्ध कहलाता है। ____ 13. गहलिंगसिद्ध- गृहस्थवेश में - वस्त्रालंकारों से विभूषित अवस्था में सिद्ध होने वाले गृहलिंग सिद्ध कहलाते हैं उमास्वाति तथा सिद्धसेनगणि ने भी द्रव्यलिंग के विषय में इन तीनों प्रकारों का वर्णन किया है। 14. एकसिद्ध- एक समय में एक जीव सिद्ध होता है। वह एक सिद्ध कहलाता है। ___ 15. अनेकसिद्ध- युगपत अनेक सिद्ध होने वाले जीव अनेक सिद्ध कहलाते हैं। जिनदासगणि के अनुसार एक साथ जब अनेक जीव सिद्ध होते हैं तब निरन्तर कितने समय तक सिद्ध होने का क्रम चालू रहता है, इसका नियम इस प्रकार है 44 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 132-133 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524628
Book TitleTulsi Prajna 2006 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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